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की गई है कि उसकी शोभाका वर्णन करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है । घास तथा धान्यादिक की तो इतनी बड़ी राशियां ( ढेर ) की गई हैं कि उनके सन्मुख पर्वतकी ऊंचाईकी कोई गिन्ती नहीं। तत्पश्चात् महाराजने अंग, बंग, कलिंग, आंध्र, जालंधर, मरुस्थल, लाट, भोट, महाभोट, मेदपाट, विराट, गौड, चौड, महाराष्ट्र , सौराष्ट्र, कुरु, जंगल, गुजेर, आभीर, कीर, काश्मीर, गोल्ल, पंचाल, मालव, हूण, चीन, महाचीन, कच्छ, कनोटक, कोंकण, सपादलक्ष, नेपाल, कान्यकुब्ज, कुंतल, मगध, निषध, सिन्धु, विदर्भ, द्रविड, उडूक, आदि देशोंके अनेक राजाओंको स्वयंवरमें पधारनेके लिये निमंत्रित किये है। हे मलयदेशाधिपति महाराज! वहां पधारनेके लिये विनती करनेके निमित्त मेरे स्वामीने मुझे आपके चरणोंमें भेजा है, अतएव आप पधार कर स्वयंबर को सुशोभित करिए।"
दूतके वचन सुनकर जितारि राजाके मनमें उन कन्याओंकी अभिलाषा तो उत्पन्न हुई, किन्तु 'वे कन्याएं मुझे ही वरेंगी इसका क्या विश्वास ?' जाऊं अथवा नहीं, इत्यादि संकल्प विकल्प करने लगा। निदान 'पांचके साथ अपने को भी जाना चाहिये' यह विचार कर उसने प्रस्थान किया। मार्गमें उत्तम शकुन होनेसे वह बड़े उत्साहसे वहां गया। इसी प्रकार बहुत से अन्य राजा भी वहां एकत्रित हुए।