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________________ (६०४) दिया। तब उनके मंत्रियोंने कहा कि, "पूर्वकी व्यवस्था इस प्रकार है":- दक्षिणदिशामें जितने बिमान हैं वे सब सौधर्म इन्द्र के हैं, और उत्तरदिशामें जितने हैं उन सब पर ईशानइन्द्रकी सत्ता है। पूर्वदिशा तथा पश्चिमदिशामें सब मिलकर तेरह गोला. कार इन्द्रक विमान हैं, वे सौधर्मइन्द्र के हैं । उन्हीं दोनों दिशा ओंमें त्रिकोण और चतुष्कोण जितने विमान हैं, उनमें आधे सौधर्मइन्द्रके और आधे ईशानहन्द्रके हैं। सनत्कुमार तथा माहेंद्रदेवलोकमें भी यही व्यवस्था है । सब जगह इन्द्रकविविमान तो गोलाकार ही होते हैं ' मंत्रियोंके वचनानुसार इस प्रकार व्यवस्थाकर दोनों इन्द्र चित्तमें स्थिरता रख,बैर छोड परस्पर प्रीति करने लगे। इतनेमें चन्द्रशेखर देवताने हरिणेगमेषी देवताको सहज कौतुकसे पुछा कि-"संपूर्ण जगतमें लोभके सपाटेमें न आवे ऐसा कोई जीव है ? अथवा इन्द्रादिक भी लोभवश होते हैं तो फिर दुसरेकी बात ही क्या ? जिस लोभने इन्द्रादिकको भी सहज ही में घरके दास समान वशमें कर लिये, उसका तीनों जगतमें वास्तवमें अद्भुत एकछत्र साम्राज्य है। " तब नैगमेषीदेवताने कहा कि- “हे चन्द्रशेखर ! तू कहता है वह बात सत्य है, तथापि ऐसी कोई भी वस्तु नहीं कि जिसकी पृथ्वीमें बिलकुल ही सत्ता न हो । बर्तमान ही में श्रेष्ठिवर्यश्रीवसुसारका " रत्नसार " नामक पुत्र पृथ्वी पर है, वह किसी भी प्रकार लोभवश होने वाला नहीं। यह बात बि
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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