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________________ (५९० ) इस रत्नपुरनगर में पराक्रम व प्रभुतासे मानो प्रतिपुरन्दर ( दूसरा इन्द्र ) ही हो ऐसा पुरन्दर नामक राजा पूर्व हुआ. उस समय मानो नगरके मूर्तिमंत दुर्भाग्य ही के समान एक चोर भांति २ के वेष करके नगर में चोरियां करता था. वह मन चाहे विचित्रभांतिकी संघ लगाता था. और अपार धनसे परिपूर्ण पात्र उठा ले जाता था. किनारेके वृक्ष जैसे नदीके तीव्र जलप्रवाहको नहीं रोक सकते, वैसे कोतवाल तथा दूसरे नगररक्षक आदि बड़े २ योद्धा उसे नहीं रोक सके. एक दिन राजा सभामें बैठा था, उस समय नगरवासियोंनें आ प्रणाम कर चोरका उपद्रव भली प्रकार कह सुनाया. जिससे राजाको क्रोध आया, उसके नेत्र लाल हो गये, और उसी समय उसने मुख्य कोतवालको बुला कर, भला बुरा कहा. कोतवाल बोला "हे स्वामिन् ! असाध्यव्याधि में जैसे कोई भी उपाय नहीं चलता, वैसे मेरा अथवा मेरे आधीनस्थ कर्मचारियोंका उस बुलन्द चोरके सन्मुख कोई भी उपाय नहीं चलता. अतएव जो आप उचित समझें वह करिए." अन्तमें महान् पराक्रमी व यशस्वी पुरन्दरराजा स्वयं गुप्तरीति से चोरकी शोध करने लगा. अकस्मात् एक दिन राजाने उक्त चोरको चोरीके माल सहित देखा. ठीक है, प्रमादका त्याग करके प्रयत्न करनेवाले पुरुष क्या नहीं कर सकते हैं ? धूर्त बगुला जैसे चुपचाप मछलीके पछि २ जाता है उसी भांति उस बातका पूर्ण निर्णय करने तथा उसका स्थान आदि •
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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