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________________ ( ५८८ ) रत्नको हरण करने से यह आज तक मेरा शत्रु था, वह अब चोर भी होगया. हाय ! ज्ञानियों में श्रेष्ठ, धीर, शूरवीर शुक ! तेरे समान प्रियमित्रके बिना सुभाषण सुनाकर अब मेरे कानोंको कौन सुख देगा ? हे धीरशिरोमणि ! दुर्दशा के समय तेरे सिवाय अन्य कौन मेरी सहायता करेगा ? " क्षणमात्र इस प्रकार खेद करके कुमार पुनः विचार करने लगा कि - "विषभक्षण करने के समान यह खेद करनेसे क्या शुभ परिणाम होवेगा ? नाश हुई वस्तुकी प्राप्ति योग्य उपाय करनेहीसे सम्भव है. चित्तकी स्थिरताहसे उपायकी योजना हो सकती हैं, अन्यथा नहीं. मंत्रआदि भी चित्तकी स्थिरता बिना कदापि सिद्ध नहीं होते. अतएव मैं अब यह निर्धारित करता हूं कि - " मेरे प्रियतां के मिले बिना मैं वापस नहीं फिरूंगा. " तदनुसार कुमार तोतेकी शोध में भ्रमण करने लगा. चोर जिस दिशा की ओर गया था उसी ओर वह भी कितनीही दूर तक चला गया; परन्तु कुछ भी पता नहीं लगा. ठीकही है, आकाशमार्ग में गये हुएका पता जमीन पर कैसे लगे ? अस्तु, तथापि आशाके कारण कुमार शोध करने में विचलित नहीं हुआ. सत्पुरुषोंकी अपने आश्रितों में कितनी प्रीति होती है ? तोतेने देशाटन में साथ रह अवसरोचित मधुर भाषण से कुमारके सिर पर जो ऋण चढाया था, वह ऋण उसकी शोध में अनेक क्लेश सहनकर कुमारने उतार दिया इस प्रकार भ्रमण करते हुए पूरा एक दिन व्यतीत होगया.
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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