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(५५९) पुरवासिनी राजस्त्रियोंकी भांति कभी भी सूर्यका दर्शन नहीं कर सकते. वहां मानो आकाशसे सूर्यका विमान ही उतरा हो ऐसा श्रीऋषभदेवभगवानका एक रत्नजड़ित सुशोभित मंदिर है. आकाशमें शोभित पूर्णचन्द्रकी भांति उस मंदिरमें श्रेष्ठ चन्द्रकान्तमणिकी जिनप्रतिमा विराजमान है. मानो उस प्रतिमाको स्वयं विधाता ही ने कल्पवृक्ष, कामधेनु, कामकुंभआदि वस्तुओंसे महिमाका सार लेकर बनाई हो ! हे तिलकमंजरी ! तू उस प्रशस्त और अतिशयसे जागृत प्रतिमाकी पूजा कर, जिससे तेरी बहिनकी शुद्धि मिलेगी और मिलाप भी होगा. वहां तेरा सर्व प्रकार इष्टलाभ ही होगा. भगवान् जिनेश्वरमहाराजकी सेवासे क्या नहीं हो सकता ? जो तू यह कहे कि मैं इतनी दूर उस मंदिरको किस प्रकार जाऊं व आऊं ? तो हे सुन्दर ! मैं उसका भी उपाय कहती हूं, सुन. कार्यका उपाय गड़बड़में भली भांति न कहा हो तो कार्य सफल नहीं होता. शंकरकी भांति सर्वकार्य करनेमें समर्थ व हरएक कार्य करनेमें तत्पर चन्द्रचूड़ नामक मेरा एक सेवक देवता है. जैसे ब्रह्माके आदेशसे हंस सरस्वतीको ले जाता है. वैसे ही मेरे आदेशसे वह देव मयूरपक्षीका रूप करके तुझे वांछित स्थानमें ले जावेगा."
चक्रेश्वरदेिवीके इतना कहते ही एक मधुरकेकारव करनेवाला सुन्दरपक्षधारी मयूर एकाएक प्रकट हुआ. उस अद्वितीय