________________
( ५३७ )
सदृश रूपशाली रत्नसारकुमारको देखा त्योंही वरको देखकर जैसे कन्याके मनमें लज्जादि उत्पन्न होते हैं वैसे उसके मनमें लज्जा, उत्सुकता, हर्ष इत्यादि मनोविकार उत्पन्न हुए और वह मनमें शून्य सम हो गया था तथापि किसी प्रकार धैर्य धरकर हिंडोले पर से उतर कर उसने रत्नसारकुमारसे इस प्रकार प्रश्न किये।
" हे जगवल्लभ ! हे सौभाग्यनिधे ! हम पर प्रसन्न दृष्टि रख, स्थिरता धारण कर, प्रमाद न कर और हमारे साथ बात चीत कर. कौनसा भाग्यशाली देश व नगर तेरे निवास से जगत् में श्रेष्ठ व प्रशंसनीय हुआ ? तेरे जन्मसे कौनसा कुल उत्सवसे परिपूर्ण हुआ ? तेरे सम्बन्ध से कौनसी जाति जुहीके पुष्प समान सुगन्धित हुई ? जिसकी हम प्रशंसा करें. ऐसा त्रैलोक्यको आनंद पहुंचानेवाला तेरा पिता कौन है ? तेरी पूजनीय मान्य माता कौन है ? हे सुन्दरशिरोमणि! जिनके साथ तू प्रीति रखता है, वे सज्जनकी भांति जगतको आनन्द देनेवाले तेरे स्वजन कौन हैं ? संसारमें जिस संबोधन से तेरी पहिचान होती है वह तेरा श्रेष्ठ नाम क्या है ? अपने इष्टजनोंके वियोगका तुझे क्या कारण उत्पन्न हुआ ? कारण कि तू किसी मित्र के बिना अकेला ही दिख पड़ता है. दूसरोंका तिरस्कार करनेवाली इस अतिशय उतावलका क्या कारण है ? और मेरे साथ तू प्रीति करना चाहता है इसका भी क्या कारण है ?"