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________________ (५२५) दिया हो, उससे बहुत फल होता है.इस प्रकार श्रावक देश तथा क्षेत्र जानकर प्रासुक और एषणीय आहार योगानुसार दे. अशन, पान, स्वादिम, खादिम औषध और भैषज आदि सो वस्तुएं प्रासुक व एषणीय होवे, वे मुनिराजको दे, मुनिराजको किस प्रकार निमन्त्रणा करना तथा गोचरी किस प्रकार ग्रहण कराना इत्यादिक विधि 'श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्ति' से समझ लेना चाहिये. यह सुपात्रदान ही अतिथिसीवभागवत कहलाता है, कहा है कि 'पहसंतलाणेसुं, आगमगाहीसुं तहय कयलोए । उत्तरपारण मि अ, दिन्नं सुबहुप्फलं होई ॥१॥ न्यायोपार्जित तथा कल्पनीय अन्नपान आदि वस्तुका; देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमका पूर्ण ध्यान रखकर, पूर्णभक्तिसे अपनी आत्मा पर अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे साधुमुनिराजको दान देना, यही अतिथिसंविभाग कहलाता है। सुपात्रदानसे दिव्य तथा औदारिकआदि वांछित भोगकी प्राप्ति होती है, सर्वसुखकी समृद्धि होती है, तथा चक्रवर्तीआदिकी पदवी प्रमुख मिलती है और अंतमें थोड़े ही समयमें निर्वाणसुखका लाभ होता है. कहा है कि अभयं सुपत्तदाणं, अणुकंपाउचिअकित्तिदाणं च । दोहिवि मुक्खो भणिओ, तिन्निवि भोमाइअं दिति ॥१॥
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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