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(४८५) गुरुदेवधम् सुहिसयणपरिचयं कारवेइ निच्चंपि । उत्तमलोएहिं समं, मित्तीभाव रयावेई ॥ २० ॥
अर्थ:-- पिताने पुत्रको गुरु, देव, धर्म, सुहृद् तथा स्व. जनोंका सदैव परिचय कराना । तथा श्रेष्ठ मनुष्योंके साथ उसकी मित्रता करना । गुरुआदिका परिचय बाल्यावस्था ही में हो जानेसे वल्कलचीरिकी भांति मनमें सदा उत्तम ही वासनाएं रहती हैं । उच्चजातिके कुलीन तथा सुशीलमनुष्योंके साथ मित्रता की होय तो कदाचित् भाग्यहीनतासे धन न मिले, तथापि आगन्तुक अनर्थ तो निस्सन्देह दूर होजाते हैं । अनार्यदेशनिवासी होने पर भी आर्द्रकुमारको अभयकुमारकी मित्रता उसी भवमें सिद्धिका कारण हुई । ( २०)
गिण्हावेइ अ पाणि, समाणकुलजम्मरूवकन्नाणं ॥ गिहभारंमि निजुंजइ, पहुत्तणं विअरइ कमेण ॥ २१ ॥
अर्थ:-पिताने पुत्रका कुल, जन्म व रूपमें समानता रखनेवाली कन्याके साथ विवाह करना, उसे घरके कार्यभारमें लगाना तथा अनुक्रमसे उसको घरकी मालिकी सौंपना." कुल जन्म व रूपमें समानता रखनेवाली कन्याके साथ विवाह करना" यह कहनेका कारण ऐसा है कि, अनमेल पतिपत्नीका योग होय तो उनका वह गृहवास नहीं, विटंबना मात्र है। तथा पारस्परिक प्रेम कम होजाय तो संभव है कि दोनों अनु. चित कृत्य करने लगे। जैसा किः