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________________ (४५५) इसी प्रकार कपट करके उसने खोटे तराजू व बाटोंसे व्यापार किया। पापानुबंधिपुण्य बलवान होनेसे व्यापारमें भी उसे बहुत द्रव्यलाभ हुआ । एक समय एक सुवर्णसिद्धि करनेवाला मनुष्य उसे मिला तो उसने युक्तिसे उसे ठगकर सुवर्णसिद्धि भी ग्रहण करली । इस प्रकार तीन प्रकारकी सिद्धियां हाथ आनेसे रंकश्रेष्ठी ( काकूयाक ) कितने ही करोड धनका अधिपति होगया । अपना धन किसी तीर्थमें, सुपात्रको तथा अनुकंपादानमें यथेच्छ खर्च करना तो दूर रहा, परन्तु अन्यायोपार्जित धनके ऊपर निर्वाह करनेका तथा पूर्वकी दीनस्थिति और पीछेसे मिली हुई धनसंपदाका अपार अहंकार आदि कारणोंसे उसने, सब लोगोंको भगा देना, नये २ कर बढाना, अन्य धनिकलोगोंके साथ स्पर्धा तथा मत्सरआदि करना इत्यादिक दुष्टकृत्य कर अपनी लक्ष्मीका लोगोंको प्रलयकालकी रात्रिके समान भयंकर रूप दिखाया । - एकसमय रंकश्रेष्ठीकी पुत्रीकी रत्नजडित कंघी बहुत सुन्दर होनेसे राजाने अपनी पुत्रीके लिये मांगी, परन्तु उसने नहीं दी । तब राजाने बलात्कारसे ली । जिससे राजाके ऊपर रोषकर वह म्लेच्छलोगोंके राज्यमें गया । और वहां करोडों स्वर्णमुद्राएं खर्चकर मुगलोंको वलभीपुर पर चढाई करने ले आया, मुगलोंने वलभीपुरके अधीनस्थ देशको नष्ट भ्रष्ट कर दिया, तब रंकश्रेष्ठीने सूर्यमंडलसे आये हुए अश्वके रक्षक
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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