SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २२ ) धवल- गीतों से बन गूंज उठा । गांगलि ऋषिने अपनी तथा वरकी योग्यतानुसार सर्व विधि स्वयं कराई, इससे भी बहुत शोभा हुई । विवाह पश्चात राजाने ऋषिसे कहा कि "मैं किसीको भी राज्यव्यवस्था न सम्हला कर अचानक इधर आगया हूं" ऋषिने कहा कि ' तो शीघ्र जानेकी तैयारी करो' । हमारे समान दिगम्बरकी तैयारी में क्या विलम्ब ? परन्तु हे राजन् ! तेरा दिव्य वेष और अपना वल्कल-वेष देख २ कर यह कमलमाला महान पुरुषों को भी दुःख पैदा कर देती है; साथ ही इसने आज तक आश्रम में सदा वृक्षोंको जल पिलाया है व जन्मसे अभी तक केवल तापसी-स्त्रियोंके रीति-रिवाज देखती आई है । इसीसे जन्मसे भोली है, परन्तु तुझमें पूर्ण अनुरागिणी हैं। राजन् ! इस मेरी कन्याको सोतों से ( अन्य रानियों से ) किसी प्रकारका तिरस्कार न होना चाहिये । " राजा ने कहा - " अन्य रानियोंसे इसकी परा भूति ( विशेपऋद्धि ) होगी, पराभूति ( तिरस्कार ) कदापि न होगा । इससे आपके वचनों में लेश मात्र भी कमी न होगी- " इतना कह कर चतुर राजाने तापसीजनोंको प्रसन्न करके तापसी - स्त्रियों आदिको संतोष देनेके उद्देशसे पुनः कहा कि " अपने स्थान पर पहुंचने पर इसके संपूर्ण मनोरथ पूर्ण करूंगा. अभी यहां तो वस्त्रादिक भी कहां से मिल सकते हैं ? "
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy