SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४१९) - पर-छिद्र निकाल कर स्वार्थसाधनेसे अपनी उन्नति नहीं होती. परन्तु उलटा अपना नाश ही होता है. देखो, रहेंटके घडे छिद्रसे अपनेमें जल भर लेते हैं, इससे उनमें जल भरा हुआ रहता नहीं, बल्कि बारम्बार खाली होकर उनको जलमें डूबना पडता है. शंकाः-न्यायवान और धर्मी ऐसे भी कितने ही लोग निर्धनताआदि दुःखसे अतिपीडित दृष्टिमें आते हैं. वैसे ही अन्यायसे व अधर्मसे चलने वाले लोगभी ऐश्वर्य आदि होनेंसे सुखी दीख पडते हैं. तो न्याय व धर्मसे सुख होता है, इसे प्रमाणभूत कैसे माना जावे ? __समाधान:-न्यायी लोगोंको दुःख और अन्यायी लोगोंको सुख नजर आता है, वह पूर्वभवके कर्मका फल है, इसभवमें किये हुए कर्मका फल नहीं. पूर्वकर्मके चार प्रकार है. श्रीधर्मघोषसूरिजीने कहा है कि- १ पुण्यानुबंधी पुण्य, २ पापानुबंधि पुण्य, ३ पुण्यानुबंधि पाप और ४ पापानुबंधि पाप ये पूर्वकर्मके चार प्रकार हैं. जिन-धर्मकी विराधना न करने वाले लोग भरतचक्रवर्तीकी भांति संसारमें कष्ट रहित निरुपम सुख पाते हैं, वह पुण्यानुबंधि पुण्य है. अज्ञान कष्ट करने वाले जीब कोणिकराजाकी भांति अतिशय ऋद्धि तथा रोग रहित काया आदि धर्मसामग्री होते हुएभी धर्मकृत्य न कर, पापकर्ममें रत होता है, वह पापानुबंधि पुण्य है. जो जीव द्रमक
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy