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एक ऋद्धिवन्त श्रेष्ठी लोकमें बहुत प्रख्यात था. बडप्पनसे तथा बहुमानकी अभिलाषासे जहां तहां न्याय करने जाया करता था. उसको बाल-विधवा परन्तु बहुत समझदार एक लडकी थी, वह सदैव श्रेष्ठीको ऐसा करनेसे मना किया करती थी, परन्तु वह एक न मानता. एकसमय श्रेष्ठीको समझानेके निमित्त उस लडकीने झूठा झगडा प्रारम्भ किया, कि “पहिलेकी धरोहर रखी हुई मेरी दो हजार स्वर्णमुद्राएं दो, तभी मैं भोजन करूंगी " ऐसा कहकर वह श्रेष्ठीपुत्री लंधन करने लगी. किसीकी एक भी न सुनी. " पिताजी वृद्ध होगये तो भी मेरे धनका लोभ करते हैं " इत्यादि ऐसे वैसे वचन बोलने लगी. अन्तमें श्रेष्ठीने न्याय करनेवाले पंचोंको बुलवाया. उन्होंने आकर विचार किया कि, “ यह श्रेष्ठीकी पुत्री है व बालविधवा है अतः इस पर दया रखनी चाहिये.” यह सोच उन्होंने दो हजार सुवर्ण-मुद्राएं उसे दिलाई. जिससे धनहानि व अपवादके क.रण श्रेष्ठी बहुत खिन्न हुआ. थोडी देरके अनन्तर पुत्रीने अपना सब अभिप्रायः भली प्रकार समझाकर उक्त स्वर्णमुद्राएं वापस दे दी. जिससे श्रेष्ठीको हर्ष हुआ व उसने न्याय करनेका परिणाम ध्यानमें आजानेसे जहां तहां न्याय करनेको जाना छोड दिया इत्यादि.
इसालये न्याय करनेवाले पंचोंने जहां तहां जैसा वैसा न्याय न करना चाहिये. साधर्मीका, संघका, भारी उपकारका