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________________ (३९८) म्लानोऽपि रोहति तरुः, क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्च द्रः । इति विमृशन्तः सन्तः, स तप्यन्ते न विपदादौ ॥१॥ विपदा सम्पदां च पि, महतामेव संभवः । कृशता पूर्णता चापि, चन्द्र एव न चोडुपु ॥ २ ॥ काटा हुआ वृक्ष पुनः नवपल्लव होता है और क्षीण हुआ चन्द्रमा भी पुनः परिपूर्ण होता है. ऐसा विचार करनेवाले सत्पुरुष आपत्तिकाल आने पर मनमें खेद नहीं करते. बडे मनुष्य ही सम्पत्ति आर विपत्ति इन दोनोंको भोगते हैं. देखो ! चन्द्रमा ही में क्षय व वृद्धि दृष्टि आती है, नक्षत्रोंमें नहीं. हे आम्रवृक्ष ! "फाल्गुणमासने मेरी सर्वशोभा एकदम हरण कर ली" ऐसा सोचकर तू क्यों उदास होता है ? थोडे ही समयमें बसन्तऋतु आने पर पूर्ववत् तेरी शोभा तुझे अवश्य मिलेगी. इस विषय पर ऐसा दृष्टान्त कहा जाता है कि:__पाटणमें श्रीमालीजातिका नागराज नामक एक कोटिध्वज श्रेष्ठी था. उसकी स्त्रीका नाम मेलादेवी था. एक समय मेलादेवीके गर्भवती होते हुए श्रेष्ठी नागराज विषूचिका ( कॉलेरा ) रोगसे मर गया. राजाने उसे निपुत्र समझ उसका सर्व धन अपने आधीन कर लिया, तब मेलादेवी अपने पियर धोलके गई. गर्भके सुलक्षणसे मेलादेवीको अमारिपडह ( अभयदानकी डौंडी) बजवानेका दोहला उत्पन्न हुआ. वह उसके पिताने पूर्ण किया. यथासमय पुत्रोत्पत्ति हुई, उसका नाम
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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