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( १८ )
एक सुवर्णरत्नमय मंदिर था। उसके कलश पर बैठकर तोता मधुर शब्दों से बोला कि " हे राजन् ! जन्मसे अभीतक किये हुए संपूर्ण पापोंकी शुद्धिके निमित्त श्री आदिनाथ भगवानको वन्दना कर " राजाने यह समझ कर कि तोतेको जानेकी बहुत जल्दी है, शीघ्र घोडे परसे ही भगवानको वन्दना करी । चतुर तोतेने राजाका अभिप्राय समझ कर उसके हितके लिये स्वयं मंदिर में जाकर प्रभुको प्रणाम किया । जिस तरह श्रेष्ठपुरुषोंके चित्तमें ज्ञानके पीछे २ विवेक प्रवेश करता है उसी भांति राजा भी घोडे पर उतरके तोतेके पछि २ मंदिरमें गया। वहां श्री ऋषभदेव भगवानकी रत्न जटित और अनुपम प्रतिमा देखकर वन्दना करके इस प्रकार स्तुति करने लगा
" एक तरफ तो स्तुति करनेके लिये बहुत उत्सुक और दूसरी तरफ निपुणताका अभाव, ऐसा होनेसे मेरा चित्त भक्तिसे स्तुति करने की ओर तथा शक्ति न होनेसे न करनेकी ओर खिंचने से डोलायमान होता है । तथापि हे नाथ ! मैं यथाशक्ति आपकी स्तुति करता हूं, क्या मच्छर भी अपनी शक्तिके अनुसार वेग आकाशमें नहीं उडता ? अपरिमित ( प्रमाण रहित ) दाता ऐसे आपको मित (प्रमाण सहित) देनेवाले कल्पवृक्ष आदिकी उपमा किस प्रकार दी जा सकती है इसलिये आप अनुपम हो। आप किसी पर प्रसन्न नहीं होते और न किसीको कुछ देते हैं तथापि सर्व मनुष्य आपकी आराधना करते हैं इसलिये