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________________ ( ३८३ ) ही की सेवा करना उचित है. कहा है कि कोई श्रावकके घर यदि ज्ञान व दर्शन संपादन करके दास होकर रहे वह भी श्रेष्ठ है, परन्तु मिथ्यात्वसे मूढमति सामान्य राजा अथवा चक्रवर्ती होना योग्य नहीं. कदाचित् अन्य कोई निर्वाहका साधन न होवे, तो समकित के पच्चखान में “वित्तीकंतारेणं" याने आजीविका रूप गहरापन उल्लंघन करनेके लिए मिथ्यात्विके विनय आदि की छुट रखता हुं, ऐसा आगार रखा है, जिससे कोई श्रावक जो मिथ्यादृष्टिकी सेवा करे, तो भी उसने अपनी शक्ति तथा युक्तिसे बन सके उतनी स्वधर्मीकी पीडा टालना. तथा अन्य किसी प्रकारसे थोडाभी श्रावकके घर निर्वाह होनेका योग मिले, तो मिथ्या दृष्टिकी सेवा त्याग देना चाहिये. ( इति सेवावधि ) सुवर्ण आदि धातु, धान्य, वस्त्र इत्यादि वस्तुओंके भेदसे भिक्षा अनेक प्रकारकी है। उनमें सर्व संग परित्याग करनेवाले मुनिराजकी धर्मकार्य के रक्षणार्थ आहार, वस्त्र, पात्र आदि वस्तुकी भिक्षा उचित है । कहा है कि- हे भगवति भिक्षे ! तू नित्य बिना परिश्रमके मिल जाय ऐसी है, भिक्षुकलोगोंकी माता समान है, साधुमुनिराजकी तो कल्पलता है, राजा भी तुझे नमते हैं, तथा तू नरकको टालने वाली है, इसलिये मैं तुझे नमस्कार करता हूं । शेष सर्वप्रकारकी भिक्षा मनुष्यको लघुता उत्पन्न करनेवाली है. कहा है कि-
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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