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________________ (३४०) दरिद्रं भर गजेन्द्र !, मा समृद्धं कदाचन । व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरोगस्य किमौषधम् ? ॥१॥ हे राजेन्द्र ! तू दरिद्र मनुष्यका पोषण कर, पर धनवानका मत कर । कारण कि, रोगी मनुष्य ही को औषधि देना हितकारी है, निरोगी मनुष्यको औषधि देनेसे क्या लाभ होगा ? इसीलिये प्रभावना, संघकी पहिरावणी, द्रव्ययुक्त मोदक और ल्हाणाआदि वस्तु साधर्मिकोंको देना हो, तब दरिद्रीसाधर्मिकको उत्तमसे उत्तम वस्तु हो वही देना योग्य है, ऐसा न करनेसे धर्मकी अवज्ञाआदि करनेका दोष आता है । योग हो तो धनवानकी अपेक्षा दरिद्रसाधर्मिकको अधिक देना, परन्तु योग न होवे तो सबको समान देना । सुनते हैं कि, यमनापुरमें जिनदास ठक्कुरने धनिकसाधर्मीको दिये हुए समकितमोदकमें एक एक स्वर्णमुद्रा रखी थी, और दरिद्रीसाधर्मीको दिये हुए मोदकमें दो दो स्वर्णमुद्राएं रखी थीं। अस्तु, धर्मखाते व्यय करना स्वीकार किया हुआ द्रव्य उसी खातेमें व्यय करना चाहिये । मुख्यतः तो पिताआदि लोगोंने पुत्रादिके पीछे अथवा पुत्रादिने पिताआदिके पीछे जो कुछ पुण्यमार्गमें व्यय करना हो, वह प्रथम ही से सबके समक्ष करना, कारण कि, कौन जाने किसकी, कहां व किस प्रकार मृत्यु होगी ? इसलिये प्रथम निश्चय करके जितना माना हो, उतना अवसर पर अलग ही व्यय
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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