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________________ ( ३३५ ) श्रावकधर्मका पालन कर मृत्यु के बाद वह स्वर्गको गई । किन्तु बुद्धिपूर्वक अपराध के दोषसे वहां नीच देवी हुई व वहांसे व्यव कर किसी धनाढ्य व पुत्रहीन श्रेष्ठीके यहां मान्य पुत्रीरूप में उत्पन्न हुई । परन्तु जिस समय वह गर्भमें आई उस समय आकस्मिक परचक्रका बडा भय आनेसे उसकी माताका सीमन्तोत्सव न हुआ | तथा जन्मोत्सव, छट्ठीका जागरिकोत्सव, नामकरणका उत्सव आदिकी पिताने आडंबर पूर्वक करनेकी तैयारी की थी, किन्तु राजा तथा मंत्री आदि बडे २ लोगों के घरमें शोक उत्पन्न होने के कारण वे न हो सके । वैसे ही श्रेष्ठी - ने रत्नजडित सुवर्णके बहुत से अलंकार प्रसन्नतापूर्वक बनवाये थे, परन्तु चौरादिकके भयसे वह कन्या एक दिन भी न पहिर सकी । वह माबापको तथा अन्यलोगों को भी बडी मान्य थी, तथापि पूर्वकर्मके दोषसे उसको खाने पीने, पहिरने, ओढनेआदिकी वस्तुएं प्रायः ऐसी मिलती थी कि जो सामान्यमनुष्य को भी सुखपूर्वक मिल सकती हैं। कहा है कि - " हे सागर ! तू रत्नाकर कहलाता है, व उसीसे तू रत्नोंसे परिपूर्ण है, तथापि मेरे हाथ में मेंडक आया ! यह तेरा दोष नहीं बल्कि मेरे पूर्वकर्मका दोष है" । पश्चात् श्रेष्ठिने " इस पुत्रीका एक भी उत्सव न हुआ यह विचार कर बडे आडंबर से उसका लग्नमहोत्सव करना प्रारंभ किया, किन्तु लग्न समीप आते ही उस कन्याकी माता अकस्मात् मृत्युको प्राप्त हुई ! जिससे बिलकुल 1 ""
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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