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________________ (३१६) आवे तब परतंत्र होकर नीचे गिरता है. तदनन्तर निष्पुण्यक सोचकर कि "योग्य स्थानका लाभ न होनेसे भाग्योदयको बाधा आती है," समुद्रतट पर गया, और धनावह श्रेष्ठीकी दासता स्वीकार की, उसी दिन नौका पर चढा व कुशल पूर्वक श्रेष्ठीके साथ द्वीपान्तरमें गया. व मनमें विचार करने लगा कि "मेरा भाग्य उदय हुआ! कारण कि, मेरे अन्दर बैठते हुए भी नौका न डूबी, अथवा इस समय मेरा दुर्दैव अपना काम भूल गया. ऐसा न हो कि लौटते समय उसे याद आवे !" कदाचित् निष्पुण्यकके मनमें आई हुई कल्पनाको सत्य करने ही के लिये उसके दुर्दैवने लकडीका प्रहार करके मट्टीके घडेकी भांति लौटते समय उस नौकाके टुकडे २ करदिये. दैवयोगसे एक पटिया निष्पुण्यकके हाथ लगा. उसकी सहायतासे वह समुद्रतटके एक ग्राममें पहुंचा और वहांके ठाकुरके आश्रयमें रहने लगा. एक दिन चोरोंने ठाकुरके घर पर डाका डाला, तथा निष्पुण्यकको ठाकुरका पुत्र समझ वे उसे बांधकर अपने स्थानको लेगये. उसीदिन दूसरे किसी डाकू सरदारने डाका डाल कर उपरोक्त डाकुओंकी पल्लीका समूल नाश करदिया. तब उन चोरोंने भी निष्पुण्यकको अभागा समझकर निकाल दिया. कहा है कि खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः संतापितो मस्तके, वछन् स्थानमनातपं विधिवशाद् बिल्वस्य मूलं गतः ।
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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