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________________ (३१३) मार्गसे देवद्रव्य की वृद्धि कर संसारसमुद्र में डूबते हैं । " श्रावक सिवाय अन्य लोगों के पाससे अधिक वस्तु बदले में रखना तथा ब्याज भी विशेष लेकर देवद्रव्य की वृद्धि करना उचित है " ऐसा कुछ लोगोंका मत है । सम्यक्त्ववृत्तिआदि ग्रंथों में सं. काशकी कथाके प्रसंगमें ऐसा ही कहा है । देवद्रव्यके भक्षण और रक्षण ऊपर सागरश्रेष्ठीका दृष्टांत है । यथाः साकेतपुर नामक नगरमें अरिहंतका भक्तं श्रेष्ठी सागर नामक एक सुश्रावक रहता था. वहांके अन्य सन श्रावकोंने सागर श्रेष्ठीको सुश्रावक समझ सर्व देवद्रव्यं सौंपा; और कहा कि "मंदिरके काम करनेवाले सुतार आदिको यह द्रव्य यथोचित देना." सागरश्रेष्ठीने लोभसे देवद्रव्य के द्वारा धान्य, गुड, घृत, तैल, वस्त्र आदि बहुतसी वस्तुएं मोल ले ली, और सुतार आदिकोंको नकद पैसा न देते उसके बदलेमें धान्य, गुड, घृत आदि वस्तुएं महंगेभावसे देने लगा व इससे जो लाभ मिलता था वह आप रख लेता था. ऐसा करते उसने एक हजार कांकणी ( रुपयेके अस्सीवें भागरूप ) का लाभ लिया, और उससे महान घोर पापकर्म उपार्जित किया. उसकी आलोचना न कर मृत्यु पाकर समुद्रमें जलमनुष्य हुआ. वहां जात्यरत्नके ग्राहकोंने जल तथा जलचरजीवोंके उपद्रवको दूर करनेवाले अंडगोलिकाका ग्रहण करनेके निमित्त उसे वज्रघरट्टमें पीला. वह महाव्यथासे मर कर तीसरे नरकमें नारकी हुआ. वेदान्तमें
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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