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________________ (२८६) किया, इसीसे इस भवमें इतने विलम्बसे पुत्र हुआ. एक बार किसीका बुरा चिन्तवन किया होवे तो भी वह अपनेको उसका कठिन फल दिये बिना नहीं रहता. धन्यके जीवने देवताके भवमें एक दिन सुविधिजिनेश्वरको पूछा कि, “मैं यहांसे च्यव कर कहां उत्पन्न होऊंगा ? तब भगवान्ने उसे तुम दोनोंका पुत्र होनेकी बात कही. तब धन्यके जीवने विचार किया कि, "मा बाप ही धर्म न पाये हों, तो पुत्रको धर्मकी सामग्री कहांस मिले ? मूल कुएमें जो पानी होवे तभी समीपके प्याऊ (जिसमें ढोर पानी पीते हैं) में सहजसे मिल सकता है." ऐसा विचार करके अपनेको बोधिबीजका लाभ होनेके लिये हंसका रूप धारण कर रानीको प्रस्तावोचित वचनसे तथा तुझे स्वप्न दिखा कर बोध किया. इस रीतिसे भव्यप्राणी देवताभवमें होते हुए भी परभवमें बोधिलाभ होनेके निमित्त उद्यम करते हैं । अन्य कितने ही पुरुष मनुष्यभवमें होते भी पूर्वसंचित चिंतामणि रत्न समान बोधिरत्न ( सम्यक्त्व ) को खो बैठते हैं। वह सम्यक्त्वधारी देवता (धन्यका जीव ) स्वर्गसे च्यव कर तुम दोनोंका पुत्र हुआ. इसकी माताको उत्तमोत्तम स्वप्न आये तथा श्रेष्ठ इच्छाएं ( दोहले ) उत्पन्न हुए, उसका यही कारण है कि, जैसे शरीरके साथ छाया, पतिके साथ पतिव्रता स्त्री, चन्द्रके साथ चन्द्रिका, सूर्य के साथ उसका प्रकाश व मेघके साथ बिजली जाती है वैसे ही इसके साथ पूर्वभवसे जिन
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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