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________________ (२४९) मरगयमणिघडियविसालथालमाणिक्कमंडिअपईवं । ण्हवणयरक रुक्खितं, भमउ जिणातिअं तुम्ह ॥ १ ॥ इत्यादि पाठ कहकर प्रधानपात्रमें रखी हुई आरती तीन बार उतारना. त्रिषष्ठीय-चरित्रादि ग्रंथमें कहा है कि- पश्चात् इन्द्रने कृतकृत्यपुरुषकी भांति कुछ पीछे सरकके पुनः आगे आ कर भगवान्की आरती ग्रहण करी. जलते हुए दीपोंकी कान्तिसे शोभायमान आरती हाथमें होनेसे, देदीप्यमान औषाधिके समुदायसे चमकते हुए शिखरसे सुशोभित इन्द्र मेरुपर्वतके समान दृष्टि आया. श्रद्धालुदेवताओंके पुष्प वृष्टि करते हुए इन्द्रने भगवान्के ऊपरसे तीन बार आरती उतारी, मंगलदीप भी आरतीकी भांति पूजा जाता है। कोसंबिसंठि अस्स व, पयाहिणं कुणइ मउलि अपईवो । जिणसोम! दसणे दिणयरुव्व तुह मंगलपईवो ॥ १ ॥ भामिज्जंतो सुरसुंदरीहिं तुह नाह ! मंगलपईवो । कणयायलस्स मज्जइ, भाणुव्व पयाहिणं दितो ॥ २॥ . १ मरकत और मणियोंका बडे थालमें माणिक्य जैसा दीपक जिसमे है वैसी ओर स्नात्रकारने हाथमें लीहुई आरती हे जिनेश्वर ! आपके आगे फिरो। २ सौम्य दृष्टिवंत ऐसे है जिनचन्द्र ! जैसे कोशांबीमें रहे हुए आपके दर्शनमें सूर्यने आकर प्रदक्षिणा की थी वैतेही कलिका समान दीपवाला यह मंगलदीप आपको प्रदक्षिणा करता है । ३ हे नाथ! देवियोंका घुमाया हुआ आपका मंगलदीप मेरुको प्रदक्षिणा करते सूर्यके समान दीखता है।
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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