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(२३५) स्तव होते हैं। एकबार वन्दनामें और पूर्वमें तथा अंतमें शक्रस्तव कहनेसे चार शक्रस्तव होते हैं अथवा द्विगुण चैत्यवंदनमें
और प्रथम तथा अंतमें शक्रस्तव बोलनेसे चार शक्रस्तव होते हैं, शक्रस्तव इरियावही और द्विगुणचैत्यवंदनमें तीन शक्रस्तव, स्तुति, प्रणिधान और शक्रस्तव मिलकर पांच शक्रस्तव होते हैं ।
महानिशीथसूत्रमें साधुको प्रतिदिन सात चैत्यवंदन कहे हैं, तथा श्रावकको भी उत्कृष्टसे सात ही कहे हैं। भाष्य में कहा है कि- रात्रिप्रतिक्रमण में १, जिनमंदिरमें २, आहारपानीके समय ३, दिवसचरिमपच्चखानके समय ४, दैवसिकप्रतिक्रमण में ५, सोनेके पहिले ६, तथा जागनेके बाद ७ इस प्रकार साधुओंको रात्रिदिनमें मिलकर सात बार चैत्यवन्दन होता है। प्रतिक्रमण करनेवाले श्रावकको प्रतिदिन सात बार
चैत्यवन्दन होता है, यह उत्कृष्ट मार्ग है । प्रतिक्रमण न करनेबालेको पांचवार होता है, यह मध्यम मार्ग है। त्रिकाल पूजामें प्रत्येकपूजाके अन्तमें एक एक मिलकर तीनवार चैत्यवंदन करे वह जघन्य मार्ग है। सात चैत्यवंदन इस प्रकार हैंदो प्रतिक्रमणके समय दो, सोते व जागते मिलकर दो, त्रिकालपूजामें प्रत्येकपूजाके अंतमें एक एक मिल कर तीन । इस भांति रातदिनमें सब मिलकर सात चैत्यवंदन श्रावक आश्रयी हुए। एक बार प्रतिक्रमण करता होवे तो छः होते हैं, सोते समय आदि न करे तो पांच, चार आदि भी होते हैं।