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पीतल, पाषाण आदिकी प्रतिमा होवे तो उसको नहला लेने के अनन्तर नित्य एक अंगलहणेसे सर्व अवयव जल रहित करना और उसके बाद दूसरे कोमल और उज्वल अंगलूहणेसे बारम्बार प्रतिमा के सर्वाङ्गको स्पर्श करना | ऐसा करनेसे प्रतिमाएं उज्वल रहती हैं। जहां जलकी जरा भी आर्द्रता रहती है वहीं दाघ पडजाता है इसलिये जलकी आर्द्रता सर्वथा दूर करना । विशेष केशर युक्त चन्दनका लेप करनेसे भी प्रतिमाएं अधिकाधिक उज्वल होती हैं। पंचतीर्थी, चतुर्विंशतिपट्ट इत्यादि स्थल में स्नात्रजलका परस्पर स्पर्श होता है, इससे कोई आशातना की भी शंका मनमें न लाना ।
श्रीरायपसेणीसूत्र में सौधर्मदेवलोक में सूर्याभदेवताके अधिकारमें तथा जीवाभिगम में भी विजयापुरी राजधानी में विजय देवताके अधिकार में भृंगार ( नालवाला कलश ), मोरपंख, अंगलोहणा, धूपदान आदि जिनप्रतिमाके तथा जिनेश्वर भगवानकी दाढकी पूजाका उपकरण एक एक ही होता है। निर्वाण पाये हुए जिनेश्वर भगवानकी दाढें देवलोककी डिबिया में तथा तीनों लोकमें हैं, वे परस्पर एक दूसरीसे लगी हुई हैं, इसीसे उनके स्नानका जल भी परस्पर स्पर्श करता है । पूर्वधर आचार्यों के समय में बनवाई हुई प्रतिमाएं आदि किसी नगर में अभी हैं । उनमें कितनी ही प्रतिमाएं एकही भगवानकी होनेसे व्यक्ता नामकी हैं, कितनी ही
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