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________________ (२२५) देवताकी वक्तव्यतामें भी द्वार और समवसरणके जिनबिंबकी पूजा मूलनायकजीकी पूजा कर लेनेके अनंतर कही है । यथाः पश्चात् सुधर्मसभाको जाकर जिनेश्वर भगवानकी दाढ़ देखते ही वंदना करे, खोलकर मोरपंखकी पूंजणीसे प्रमार्जन करे, सुगंधित जलसे एकवीस बार प्रक्षालन कर गोशीर्षचंदनका लेप करे और पश्चात् सुगंधित पुष्पआदि द्रव्यसे पूजा करे । तदुपरान्त पांचों सभाओंमें पूर्वानुसार द्वार प्रतिमाकी पूजा करे, द्वारकी पूजा आदि बाकी रहा वह तीसरे उपांगमें से समझ लेना. इसलिये मूलनायकजीकी पूजा अन्य सर्व प्रतिमाओंसे प्रथम और विशेष शोभासे करना । कहा है कि उचिअत्तं पूआए, विसेसकरणं तु मूलबिंबस्स । ज पडइ तत्थ पढ भं, जणस्स दिट्टी सहमणेणं ॥ १ ॥ मूलनायकजीकी पूजामें विशेष शोभा करना उचित है; कारण कि, मूलनायकजी ही में भव्यजीवोंकी दृष्टि और मन प्रथम आकर पडता है । शिष्य पूछता है कि, " पूजा, वन्दन आदि क्रिया एकको करके पश्चात् बाकीके अन्य सबको करनेमें आवे, तो उससे तीर्थंकरों में स्वामीसेवकभार किया हुआ प्रकट दृष्टिमें आता है । एक प्रतिमाकी अत्यादरसे विशिष्ट पूजा करना और दूसरी प्रतिमाओंकी सामग्रीके अनुसार थोडो करना, यह भी भारी अवज्ञा होती है, यह बात निपुणबुद्धि पुरुषोंके ध्यानमें आवेगी."
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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