________________
( २०१ )
जाता है ।“एगसाडिअं उत्तरासंगं करेई" ( अर्थात् एक साडी उत्तरासन करे ) इत्यादिक सिद्धान्त के प्रमाणभूत वचन हैं इससे उत्तरीय वस्त्र अखंड ही रखना । दो या अधिक टुकडे जुडा हुआ न रखना । " दुकुल (रेशमी वस्त्र पहिरकर भोजनादिक कर तो भी वह अपवित्र नहीं होता, " यह लोकोक्ति इस ( पूजा के ) विषय में प्रमाणभूत नहीं मानना | परन्तु अन्य वस्त्रकी भांति दुकुल वस्त्र भी भोजन, मल, मूत्र तथा अशुचि वस्तुका स्पर्श इत्यादि से बचाकर रखना चाहिये | वापरने पर धोना, धूप देना इत्यादि संस्कार करके पुनः पवित्र करना, तथा पूजा सम्बन्धी वस्त्र थोडे समय ही वापरना । पसीना, नाकका मल आदि इस वस्त्रसे नहीं पोंछना, कारण कि, उससे अपवित्रता होती है । पहिरे हुए अन्यवस्त्रोंसे इस वस्त्रको अलग रखना । प्रायः पूजाका वस्त्र दूसरेका नहीं लेना । विशेष कर बालक, वृद्ध, स्त्रियों आदिका तो कदापि नहीं लेना चाहिये । दूसरे का पहिना वस्त्र न पहिननेपर चाहक का दृष्टान्त.
सुनते हैं कि, कुमारपाल राजाका उत्तरीयवस्त्र बाहड मंत्री के छोटे भाई चाहडने पहिरा, तत्र राजाने कहा कि, "मुझे नवीन वस्त्र दे " चाहडने कहा- " ऐसा नवीन वस्त्र सवालक्षदेशकी बेबेरापुरी ही में मिलता है, और वह वहां से वहांके राजाका पहिरा हुआ ही यहां आता है । " पश्चात् कुमारपालने बेके राजाके पास से एक बिना वापरा दुकुल वस्त्र मांगा,