SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१६५) महुआ, मकुर, वाल्हउली, बडे वेर, कच्चा कोठिंबडा, खसखस तिल, सचित्त लवण इत्यादिक वस्तु बहुबीज तथा जीवाकुल होनेसे त्यागना। लालिमा आदि होनेसे जिसपर बराबर तेज नहीं ऐसे गिलोडे, करेले, फणस आदि वस्तु जिस देश, नगर इत्यादिमें कडवा तुम्बा, भूरा कुम्हडा आदि लोक विरुद्ध होवे तो वे भी श्रावकने त्यागना, कारण कि, वैसा न करनेसे जैनधर्मकी निंदा आदि होनेकी संभावना होती है । बावीस अभक्ष्य तथा बत्तीस अनन्तकाय दूसरेके घर अचित्त किये हुए हों तो भी ग्रहण नहीं करना । कारण कि, उससे अपनी क्रूरता प्रकट होती है, तथा "अपनेको अचित्त अनंतकाय आदि लेना है" ऐसा जान कर वे लोग विशेष अनंतकायादिकका आरंभ करें, इत्यादि दोष होना संभव है । उकाला हुआ पकाया हुआ अद्रक, सूरन, बैंगन इत्यादिक सर्व अचित्त हो तो भी त्यागना चाहिये । कदाचित् कुछ दोष होजावे वह टालनेके निमित्त मूलके पंचांग (मूल, पत्र, फूल, फल तथा काडी) त्यागना। सोंठ आदि तो नाम तथा स्वादमें भेद होजानेसे ग्रहण करते हैं। उसिणोइगमणुवत्ते, दंडे वासे अ पडिअमित्तंमि । मुत्तूणादेसतिगं, चाउल उदगं बहु पसन्नं ॥ १॥" गर्म जल तो तीन उकाली आवे तब तक मिश्र होता है। पिंडनियुक्ति में कहा है कि, तीन उकालीन आई होवे तबतक गर्म पानी मिश्र होता है । उसके उपरान्त अचित होता है। वैसेही
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy