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________________ (११७) गर्षिता इव कुर्वति, जीवाः सांसारिकी क्रियाम् । तद्विपाके तु दीनाः स्युः, फाल भ्रष्टप्लवंगवत् ॥१॥८६१॥ मनुष्य अहंकारसे संसार सम्बन्धी क्रियाएं तो करते हैं, किन्तु उससे संचित कर्मका उदय जब होता है तब कूदते २ छलांग चूक कर गिरजाने वाले बन्दरकी भांति अंतमें दीन होते हैं." राजर्षि मृगध्वज यद्यपि चन्द्रशेखरका संपूर्ण हाल जानते थे किन्तु उस सम्बन्धमें एक भी शब्द नहीं बोले । कारण कि, शुकराजने वह वात पूछीही नहीं थी. केवली महाराज पूछे बिना ऐसी बात कभी नहीं कहते हैं । जगत्में सर्व जगह उदासीनता रखना यही केवलज्ञानका फल है. तदनन्तर शुकराजने बालककी भांति पिताके पांवमें गिरकर पूछा कि "हे तात! आपका दर्शन होजाने परभी मेरा राज्य जावे यह कैसी बात है ? साक्षात् धन्वन्तरि वैद्यके प्राप्त होने पर भी यह रोगका कैसा उपद्रव ? प्रत्यक्ष कल्पवृक्षके पास होते हुए यह कैसी दरिद्रता ? सूर्यके उदय होजाने पर यह कसा अंधकार ? इसलिये हे प्रभो ! मुझे ऐसा कोई उपाय बताइये कि किसी भी अंतरायके बिना शीघ्र वह राज्य वापस मुझे मिल जाय." इत्यादि वचनोंसे शुकराजने बहुत आग्रह किया तब राजर्षि मृगध्वज बोले, "दुःसाध्य कार्य भी धर्मकृत्यसे सुसाध्य होता है. तीर्थ शिरोमणि एसा विमलाचल यहांसे पास ही है. वहां
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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