SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११० ) उसने राज्यकी अधिष्ठात्रि गोत्रदेवीकी बहुत समय तक आराधना की । विषयान्ध पुरुष के कदाग्रहको धिक्कार है ! अधिष्ठायिकादेवीने प्रकट होकर चन्द्रशेखर से कहा कि, " हे वत्स! वर मांग " चन्द्रशेखर ने कहा " हे देवि ! शुकराजका राज्य मुझे दे" देवीने कहा " जैसे सिंहके सन्मुख हरिणीका कुछ भी पराक्रम नहीं चलता वैसे ही दृढसम्यक्त्वधारी शुकराज के साम्हने मेरा पराक्रम नहीं चल सकता. " चन्द्रशेखर बोला "जो तू प्रसन्न हुई हो और मुझे वर देती हो तो बलसे अथवा छलसे भी मेरा उपरोक्त कार्य कर ।" चन्द्रशेखर की भक्ति तथा उक्तिसे संतुष्ट हो कर देवीने कहा कि, "यहां तो छल ही का कार्य है, बलका नहीं. कोई समय जब शुकराज बाहर गांव जावे तब तूनें शीघ्र उसके राजमहल में जाना, मेरे प्रभाव से तेरा स्वरूप ठीक शुकराजके सदृश हो जावेगा, उससे तू यथेष्ट भांति से शुकराजका राज्य भोग सकेगा " यह कह देवी अदृश्य हो गई । चन्द्रशेखरने बड़े संतोषसे चन्द्रवतीको यह वृत्तान्त कह सुनाया । एक समय तीर्थयात्रा करनेको मन उत्सुक होने से शुकराजने अपनी दोनों रानियोंसे कहा कि "हे प्रियाओ ! मै विमलाचल तीर्थको वंदन करनेके हेतु उस आश्रम पर जानेका विचार करता हूं" उन्होने कहा कि, "हम भी साथ चलेंगी, ताकि हमको भी अपने मातापिताका मिलाप हो जावेगा .
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy