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________________ ६२/योग-प्रयोग-अयोग ने असार समझकर नहीं ग्रहण किया, अन्य योगी लोग उसी को पाने की अनेक चेष्टाएँ करते हैं । हे राजन् ! ऋषभदेव जी लोक, देव, देवता, ब्राह्मण, गौ आदि सब पूजनीयों के परम् गुरु हैं । (स्क. ५, अ. ६) इस तरह भागवतकार ने भी भगवान् ऋषभदेव को श्रेष्ठ योगी बतलाया है। यों तो कृष्ण को भी योगी माना जाता है। किन्तु कृष्ण का योग "योगः कर्मसु कौशलम्" के अनुसार कर्मयोग था और भगवान् ऋषभदेव का योग कर्मसन्यास रूप था। जैन धर्म में कर्म सन्यास रूप योग की ही साधना की जाती है। ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थंकर योगी थे। मौर्यकाल से लेकर आज तक की सभी जैन मूर्तियाँ योगी के रूप में ही प्राप्त हुई हैं। ___ योग की परम्परा अत्यन्त प्राचीन परम्परा है। वैदिक आर्य उससे अपरिचित थे। किन्तु सिन्धु घाटी सभ्यता योग से अछूती नहीं थी, वहाँ योगासन-योग मुद्राएँ योगी की मूर्ति से ही प्राप्त हुए हैं। और ये मूर्तियाँ-रामप्रसाद चन्दा ने ऋषभदेव की मूर्ति होने की संभावना व्यक्त की थी। अतः श्रीमद्भागवत आदि हिन्दू-पुराणों से भी ऋषभदेव का पूर्व पुरुष होना तथा योगी होना प्रमाणित होता है और उन्हें ही जैन-धर्म का प्रस्थापक भी बतलाया गया है। एक बात और भी उल्लेखनीय है। श्रीमद्भागवत् (स्क. ५, अ. ४) में ऋषभदेव जी के पौ पुत्र बतलाये हैं। उनमें भरत सबसे बड़े थे। उन्हीं के नाम से इस खण्ड का नाम "भारतवर्ष' पड़ा। भारत के सिवा कुशवर्त, इलावर्त, विदर्भ, कोकर, द्रविड आदि नामक पुत्र भी ऋषभदेव के थे। ये सब भारतवर्ष के विविध प्रदेशों के भी नाम रहे हैं। इनमें द्रविड नाम उल्लेखनीय है। जो बतलाता है कि ऋषभदेव जी द्रविड़ों के भी पूर्वज थे। सिन्धु सभ्यता द्रविड़ सभ्यता थी और वह योग की प्रक्रिया से परिचितं थी जिसकी साधना ऋषभदेव ने की थी। श्री चि. वि. वैद्य ने भागवत के रचयिता को द्रविड़ देश का अधिवासी बतलाया है। [ हि. ई. लि. (विन्टर) भा. १. पृ. ५५६ का टिप्पण नं. ३ ] और द्रविड़ देश में रामानुजाचार्य के समय तक जैन-धर्म का बड़ा प्राबल्य था । संभव है इसी से भागवतकार ने ऋषभदेव को द्रविड़ देश में ले जाकर वहीं पर जैन धर्म की उत्पत्ति होने का निर्देश किया हो। किन्तु उनके उस निर्देश से भी इतना स्पष्ट है कि ऋषभदेव के जैन धर्म का आद्य प्रवर्तक होने की मान्यता में सर्वत्र एकरूपता थी और ऋषभदेव एक योगी के रूप में ही माने जाते थे तथा जनसाधारण की उनके प्रति गहरी आस्था थी। यदि ऐसा न होता तो ऋषभदेव को विष्णु अवतारों में इतना आदरणीय स्थान प्राप्त न हुआ होता।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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