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________________ योग-प्रयोग-अयोग/६३ अयोध्या प्रदेश के नाभिसुत ऋषभदेव ने पाषाणकालीन प्रकृत्याश्रित असभ्य युग का अन्त करके ज्ञान-विज्ञान संयुक्त कर्मप्रधान मानव सभ्यता का भूतल पर सर्वप्रथम प्रारम्भ किया। अयोध्या से हस्तिनापुर पर्यन्त प्रदेश इस नवीन सभ्यता का प्रधान केन्द्र था। उन्होंने असि, मषि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्यारूप लौकिक षट्कर्मों का तथा देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान रूप धार्मिक षट्कर्मों का मानवों को उपदेश दिया। साथ-साथ राज्यव्यवस्था, समाज संगठन और नागरिक सभ्यता के विकास के बीज वपन किये । कर्मक्षय से क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के रूप में श्रमविभाजन का भी निर्देश किया। वे स्वयं इक्ष्वाकु कहलाये इससे उन्हीं से भारतीय क्षत्रियों के प्राचीनतम इक्ष्वाकुवंश का प्रारम्भ हुआ। लोक को लौकिक एवं पारलौकिक उपदेश देकर उन्होंने निस्पृह निरीह योग मार्ग अपनाया और कैलाश पर्वत से निर्वाण लाभ किया । - उनके पुत्र सम्राट भरत चक्रवर्ती ने सर्वप्रथम सम्पूर्ण भारत को राजनैतिक एकसूत्रता में बाँधने का प्रयत्न किया। उन्हीं के नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाया और प्राचीन आर्यों का भरतवंश चला। ऋषभ के ही अन्य पुत्र का नाम द्रविड़ था उन्हें उत्तरकालीन द्रविड़ों का पूर्वज कहा जाता है । सम्भव है किसी विद्याधर कन्या से विवाह करके ये विद्याधरों में ही जा बसे हों और उनके नेता बने हों, जिससे वे लोग कालान्तर में द्राविड कहलाये । भरत के पुत्र अर्ककीर्ति से सूर्यवंश, उनके भतीजे सोमयश से चन्द्रवंश तथा एक अन्य वंशज कुरु से चला, ऐसी भी जनुश्रुतियाँ हैं । ऋषभदेव द्वारा उपदेशित यह अहिंसामय सरल आत्मधर्म उस काल में सम्भवतः ऋषभधर्म, अर्हतधर्म, मग्ग या मार्ग अर्थात् मुक्ति और सुख का मार्ग कहलाया था। इसके द्वारा अनुप्रणित संस्कृति ही श्रवण संस्कृति कहलायी। ऋषभ के उपरान्त आने वाले अजितनाथ आदि विभिन्न तीर्थंकरों ने इस संस्कृति का पोषण किया और उक्त सदाचार प्रधान योगधर्म का पुनः प्रचार किया। __ ऋषभदेव भगवान के पश्चात् तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ के समय में भी इसी प्राचीन योग सभ्यता का विशेष रूप में विकास हुआ। सम्भवनाथ का विशिष्ट लांछन् अश्व है और सिन्धु देश चिरकाल तक अपने सैन्धव अश्वों के लिए प्रख्यात रहा है। मौर्य काल तक सिन्धु में एक सम्भूत्तर जनपद और साम्भव (सम्बूज) जाति के लोग विद्यमान थे जो बहुत सम्भव है कि सिन्धु सभ्यता के मूक प्रवर्तकों एवं तीर्थंकर सम्भवनाथ के मूल अनुयायियों की ही वंश-परम्परा में हो। यह सभ्यता अवैदिक एवं अनार्य ही नहीं वरन् प्राग्वैदिक थी तथा इसके पुरस्कर्ता ऋषभ प्रणीत योग धर्म के
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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