SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ / योग- प्रयोग अयोग जैन दर्शन में महत्व 'संयोगी का नहीं' "अयोगी" का है। जैन दर्शन में योग विषयक उपर्युक्त समस्त कथन समाधि और संयोग रूप योग को लेकर किया गया है। संयोग साधक जिससे जुड़ता है उससे बंधता है यह बन्धन ही योग है। समाधि अर्थ में 'साधक बंधन से मुक्त होता जाता है और क्रमशः सयोगी से अयोगी अवस्था पाता है, अतः जैन दर्शन में अयोगी का स्थान समाधि का अंतिम चरण है । शाब्दिक दृष्टि स्त्रे योग और अयोग परस्पर विरोधाभास लगते हैं । पर "पातञ्जल योग" में जो स्थान योगी का है वही स्थान जैन दर्शन में सयोगी का है। जो साधक मन, वचन, काय रूप योग से पर होकर अयोगी होता है वही सिद्ध परमात्मा है ऐसी जैन दर्शन की मान्यता है । पर्याय की दृष्टि से योग पर्याय की दृष्टि से योग विभिन्न स्वरूपों में परिलक्षित होता है जैसे जोगो विरियं थामो, उच्छाई परिक्कमो तहा चिट्ठा सत्ती सामत्थं चिय, जोगस्स हवंति पज्जाया । अर्थात् योग, वीर्य, स्थाम (बल), उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति तथा सामर्थ्य ये 'सात योग के पर्याय शब्द हैं । योगी वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाने में समर्थ होता है। भोगी का वीर्य अधोगामी होता है इसलिए वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए “बलयोग" का प्रयोग उपयुक्त होता है। यदि साधक में तीव्रता का "उत्साह" है तब तो यह कार्य शीघ्र पार कर सकता है अन्यथा अनेक भव आराधना चलती रहती है। यहाँ 'पराक्रम' को भी योग कहा है पराक्रम अर्थात् पुरुषार्थ । पुरुषार्थ के बिना तो कार्य सिद्ध हो ही नहीं सकता । पुरुषार्थ से ही चेतना को जागृत करने की "चेष्टा" प्रदान होती है। ऐसी चेष्टा हमारी ऊर्जा 'शक्ति' को तरंगित करती है। इन तरंगों के द्वारा ही सामर्थ्य योग सफल होता है। अतः पर्याय अर्थ में ये सभी योग सार्थक हैं । सर्वार्थ सिद्धि ग्रन्थ में 'योग' समाधि और सम्यक प्रणिधान अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। समाधि यह तो योग का अंतिम चरण है। सम्यक् प्रणिधान से ही समाधि को क्रमशः बल मिला है। सम्यक् प्रणिधान से अज्ञानता तुटती हैं और सन्मार्ग का द्वार खुला होता है। अतः द्वार प्राप्त होने से साधक प्रणिधान रूप-शुभभाव और समाधि रूप स्थिर भाव को प्राप्त कर सकता है अतः दोनों को पर्याय रूप में 'योग' कहा है । तत्त्वार्थ राजवार्तिक में योग का अर्थ समाधि और ध्यान ऐसा भी मिलता है। समाधि को प्राप्त ५. कर्मप्रकृति - प्र. ११. ६. "योगः समाधिः सम्यक प्रणिधान मित्यर्थ ।" - सर्वार्थसिद्धि ६/१२/३३१/३ ७. युजे: समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थान्तरम् । - राजवार्तिक ६/१/१२५०५/२७
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy