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________________ योग-प्रयोग-अयोग/५५. समाधि अर्थ में साध्य रूप से नियोजित हो जाता है । यद्यपि समाधि साध्य है तथापि परम साध्य मोक्ष की दृष्टि से वह भी मोक्ष का अंतरंग साधन है। इस प्रकार योग शब्द की मौलिक व्याख्या में समाधि और संयोग ये दोनों ही अर्थ सार्थक हैं। प्रस्तुत धात्वर्थ के अनुसार फलितार्थ समाधि और संयोग ये दोनों अर्थ आज के युग में अत्यन्त महत्वपूर्ण और विचारणीय रहे हैं । जब साधन रूप संयोग साध्य रूप से संयोजित है तब साधक मोक्ष के साथ जुड़ता है, और जब साधन रूप संयोग भोग के साथ जुड़ता है तब संसार से जुड़ता है। संसार का सम्बन्ध सुख और दुख के संयोग से जुड़ा हुआ है। प्रत्येक प्रवृत्ति मन, वचन और काया से ही प्रवृत्तमान होती है। सभी जीव मन से दृश्यमान पदार्थों को चाहते हैं, दृश्यमान पदार्थों का विश्लेषण करते हैं, और दृश्यमान पदार्थों का अस्तित्व स्वीकारते हैं : उसी प्रकार वचन द्वारा वर्णित पदार्थों का तथा काया के द्वारा उसका उपभोग करता है। मन-वचन और काया की इन तीनों प्रवृत्ति से आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है। स्पंदन के प्रभाव से भोगेच्छा से सम्बन्ध जुड़ता है। अतः इस जुड़ने रूपयोग को संयोग कहा जाता है। अर्थात् जीव प्रदेशों के संकोच और विकोच रूप परिस्पंदन को संयोग कहते हैं । ऐसा परिस्पंदन कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है। क्योंकि कर्मोदय रहित सिद्धों में यह नहीं पाया जाता । संयोग का अर्थ है-जिस प्रकार सशरीरी आत्मा, इस शब्द से आत्मा और शरीर का सम्बन्ध स्थापित होता है उसी प्रकार संयोग शब्द से योग सहित आत्मा का सम्बन्ध स्थापित होता है। अतः संयोग भोग का परिणाम होता है। क्योंकि किसी भी योग के लिए उससे सम्बन्धित वस्तु का योग आवश्यक है। अतः जैन दर्शन के अनुसार जहाँ भोग है-वहाँ संयोग है। और उस भोग का साधन मन-वचन और काया रूप योग है। ऐसे सयोगी आत्मा को संसारी आत्मा कहते हैं। भोग रूप कार्य का मन, वचन, काया रूप करण और कारण में आरोप कर उपचार से मन, वचन, काया को जैन दर्शन में योग (संयोग) कहा है तथा कर्ता आत्मा में मन, वचन, काया के योग रूप करण का आरोप कर उपचार से कर्ता को भी योगी (संयोगी) कहा गया है, जब तक कोई भी आत्मा मन, वचन और काया इन तीनों योगों में से किसी भी योग का प्रयोग या उपयोग करता है, तब तक वह आत्मा योग सहित आत्मा है। योग सहित आत्मा को संयोगी आत्मा कहा जाता है। जब योग के प्रयोग का पूर्णतः निरोध कर दिया जाता है तब वह अयोगी आत्मा कहा जाता है। अयोगी आत्मा शरीर और संसार रूप विनाशी के बंधन से सर्वथा मुक्त "सिद्ध" हो जाता है। अत.
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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