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________________ ४८ / योग- प्रयोग- अयोग कार्मण शरीर से तैजस शरीर उत्तेजित होता है और तैजस शरीर से औदारिक और औदारिक शरीर से ग्रन्थियों का निर्माण होता है। जैसे आपका एक्सीडेन्ट हो गया, आप भयभीत हो गये। चोट औदारिक शरीर हुई जो स्थूल है अब भयं चेतन मन से अवचेतन मन में चला गया वह ग्रन्थि बन गया। चेतन मन आपको कार्य में व्यस्त रखता है लेकिन जब भयावनी बातें सुन लेते हो तो मनोग्रन्थि उभर कर चेतन मन में जाग्रतं हो जाती है और आप भयभीत हो जाते हो या चीखने लगते हो । इन्हीं ग्रन्थियों को भेदने का उपाय है योग साहित्यों में जिसे हम कर्म की भाषा में यथा प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण १४ से जान सकते हैं। इस प्रकार क्षितिजा योग, लब्धि योग, समिति योग, गुप्ति योग, श्रमण योग, गृहस्थ योग, मन्त्र योग, जप योग आदि योग विशद् रूप से साहित्य में प्राप्त होता है । १. औयिक भाव यिक भाव यह है जो कर्म के उदय से पैदा हो। उदय एक प्रकार का आत्मिक कालुष्य मालिन्य है, जो कर्म के विपाकानुभव से वैसे ही होता है जैसे मल के मिल जाने पर जल में मालिन्य । "योग" औदयिक भाव है, क्योंकि शरीर नामकर्म का उदय न होने के पश्चात् ही योग का विनाश पाया जाता है और ऐसा मानकर भव्यत्व भाव के साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि कर्म सम्बन्ध है विरोधी भव्यत्व भाव की कर्म से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम'से उत्पन्न होता है, तो सयोगिकेवली में योग के अभाव का प्रसंग आता है, क्योंकि सयोगिकेवली में वीर्यान्तराय का क्षयोपशम नहीं होता, बल्कि क्षय होता है। इसके उत्तर में यह कहा जाता है कि ऐसा नहीं, योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से है। असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोगिकेवली में अभाव मानने में विरोध होता है। शरीर नामकर्मोदय के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया क्योंकि वह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है। इस कारण कषाय नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है। ५४. देखिये आकृति नं. ५
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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