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________________ योग-प्रयोग-अयोग/४७ सूत्रकार में विदेह और प्रकृति लयों में जो भवप्रत्यय (जन्मसिद्ध) योग का पाया जाना कहा है उसकी संगति जैन दर्शन के अनुसार लवसप्तम देवों- अनुत्तर विमानवासी में करनी चाहिये, क्योंकि उन देवों को जन्म से ही ज्ञान योग रूप समाधि होती है। ये योगी देव और मनुष्य का एक भय पूर्ण करके कैवल्य ज्ञान और कैवल्य दर्शन को प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध, और मुक्त होते हैं । यहाँ प्रश्न होता है कि कार्मण शरीर पुद्गल विपाकी नहीं है। क्योंकि उससे पुद्गलों के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान आदि का आगमन आदि नहीं पाया जाता है। इसलिए योग को कार्मण शरीर से उत्पन्न होने वाला (औदयिक) मान लेना चाहिए। इसका समाधान नहीं में मिलता है, क्योंकि सर्व कर्मों का आश्रय होने से कार्मण शरीर भी पुद्गलविपाकी ही है। अर्थात् वह सर्व कर्मों का आश्रय या आधार है। पुनः प्रश्न होता है कि कार्मण शरीर का उदय 'विनष्ट होने के समय में योग का विनाश देखा जाता है। इसलिए योग कार्मणशरीरजनित है, ऐसा मानना चाहिए? इसका उत्तर भी नहीं में है, क्योंकि, यदि ऐसा माना जाये तो अघाति-कर्मोदय के विनाश होने के अनन्तरं ही विनष्ट होने वाले पारिणामिक भव्यत्व भाव के भी औदयिकपन का प्रसंग प्राप्त होगा । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचम से योग का पारिणामिकत्व सिद्ध हुआ | राग-द्वेष, वैर-विरोध, संघर्ष-क्लेश आदि की धाराएँ, मन में गहरे सस्कार जमाती हैं फलस्वरूप वही संस्कार ग्रंथियों का रूप धारण करती है। अमोनिया पर जल का प्रवाह बर्फ बन जाता है वैसे ही वृत्तियों का आवेग और संवेग ग्रन्थि के रूप में जम जाता है और अवचेतन मन में अवस्थित रहता है। कोष्ठक नं. ३ मन शरीर १. अचेतन मन गुप्त चेतना स्थूल-औदारिक शरीर [Unconscious mind] [Physical body] अवचेतन मन अप्रकट चेतना सूक्ष्म-तैजस शरीर [Sub-conscious [Etheric body] mind] ३. चेतन मन प्रकट चेतना सूक्ष्मतम-कार्मण-शरीर [Conscious mind] (Astrol body] तना ५३ धवला-५/१,७,४८/३२५/१०
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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