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________________ २५० / योग- प्रयोग- अयोग नाडितन्त्र भावतन्त्र को तथा विद्युत् ऊर्जा को जागृत करता है तथा कोशिकाओं को बढ़ाता है। विद्युत ऊर्जा से प्राप्त रक्त कोशिकाएँ अपने शरीर में ६०० खरब से भी अधिक होती हैं. सूक्ष्म वीक्ष्णयन्त्र तथा सूक्ष्मतम वीक्षण यन्त्र द्वारा ये कोशिकाएं दृश्यमान होती हैं। छोटी कोशिकाएं १/२०० मिलीमीटर लम्बी और चौड़ी होती हैं। बड़ी कोशिकाएं १ / ४ मिलीमीटर लम्बी-चौड़ी होती है। जीवित कोशिकाओं में अनेक प्रकार के रसायन विद्यमान होते हैं। उसे पोषक तत्त्व और प्राणवायु (ऑक्सीजन) की निरन्तर आवश्यकता होती है। इन कोशिकाओं से तैजस (कुंडलिनी) शक्ति जागृत होती है । भाक्तन्त्र विशुद्ध होता है और वृत्तियों का क्षय होता है। ५. विशुद्धि चक्र - यह चक्र कंठ क्षेत्र में थॉयराइड ग्रंथि के पास स्वरतंत्र (tarynx) में स्थित माना गया है। यह चक्र भी वायु प्रधान है तथा रंग जामुनी है। स्वर, ध्वनि, नाद यहाँ से प्रकट होते हैं। इस चक्र पर संयम होने से भूख प्यास की निवृत्ति, मन की स्थिरता और नाद की उपलब्धि होती है । ६. आज्ञाचक्र - यह चक्र दोनों भौहों के बीच बिन्दी के स्थान पर होता है। इस स्थान पर भूरे रंग की राई जितनी मांस की दो ग्रंथियाँ होती हैं। ध्यान अवस्था में ये ग्रंथियाँ सक्रिय हो जाती हैं, जो एक ऋणात्मक (Negative) और दूसरी धनात्मक (Positive) विद्युत युक्त होती है। इससे दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है । ७. सहस्त्र चक्र - यह चक्र मस्तिष्क के मध्य भाग से सम्पूर्ण मस्तिष्क में व्याप्त “ है। इसमें सभी वर्ण पाये जाते हैं। यें साधना का सर्वोत्तम स्थान है, समाधि और मुक्ति का राज है। ग्रंथि भेद 1 काम, क्रोध, मद, माया, लोभ, अहं, भय आदि वृत्तियाँ हैं । ये वृत्तियाँ आत्मोन्नति के लिए बाधक होती हैं । अतः आगम में इन वृत्तियों के क्षय को ग्रंथिभेद कहा जाता है। हमारे भीतर वृत्तियों के संचय से विषय, कषाय और भाव-लेश्या के शल्य यत्र-तत्र सर्वत्र पड़े हैं। इन शल्य अर्थात् ग्रंथियों का भाव द्वारा रूपान्तरण किया जाता है। अनन्त काल से जीव अव्यवहार राशि में जन्म-मृत्यु का दुख भोगता है। कभी अकाम निर्जरा करता हुआ जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आता है। पुण्य. और पाप कर्म के बन्धन से अनन्त काल तक इस संसार में परिभ्रमण करता है। इस परिभ्रमण से पर होने की प्रक्रिया को ग्रंथि भेद कहा जाता है। कषाय आदि का आवेग तीव्रतम है तो संसार का परिभ्रमण अनन्त है। यदि मंद है तो संसार का परिभ्रमण अल्प है । जिस जीव का परिभ्रमण अल्प है उसे उपशम सम्यकत्व की प्राप्ति होती है।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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