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________________ २३८ / योग-प्रयोग-अयोग साम्य शुद्ध जहाँ न कोई आकार है, न अकारादि अक्षर है, न कृष्ण-नीलादि वर्ण है, और न कोई विकल्प ही है, किन्तु जहाँ केवल एक चैतन्य स्वरूप ही प्रतिभासित होता है उसी को साम्य कहा जाता है। साम्य भाव में स्थित साधक को इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के प्रति मोह उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि जिस साधक को समभाव की भावना है, उस साधक की समस्त आशाएँ तत्काल नाश हो जाती हैं, अविद्या क्षण भर में क्षय हो. जाती है। तथा वासनाएँ भव्य हो जाती हैं। ... आत्मा का अपने समस्त पर द्रव्यों और उनकी पर्यायों से अभिन्न स्वरूप निश्चित होते ही उसी समय साम्य भाव उत्पन्न हो जाता है। इस साम्यभाव में जब साधक स्थित हो जाता है । तब लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जन्म-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा, इष्ट-अनिष्ट, मान-सम्मान इत्यादि विषमताओं में राग-द्वेष न करना किन्तु माध्यस्थ भाव से ज्ञाता-दृष्टा बनकर समता साधना में स्थित रहना समत्वयोग कहलाता है अथवा अविद्या द्वारा इष्ट-अनिष्ट वस्तु तत्व में जो कल्पना जीवात्मा को होती है उस कल्पना को सम्यकज्ञान के बल से दूर कर समभाव से भावित होना समत्व योग है। समत्व योग का लक्षण समत्वयोगी ही प्रतिकूल परिस्थितियों में एवं विभिन्न अवस्थाओं में अपना संतुलन विवेकपूर्वक रख सकता है। यहाँ तक कि मन के विचारों में, वचन के तरंगों में, काया की चेष्टाओं में, प्रत्येक स्थानों में, प्रति क्षणों में, सुषुप्त अवस्था में या जागृत अवस्था में, रात्रि में, या दिन में, प्रत्येक प्रवृत्तियों में मन, वचन और काया से समत्वयोगी समता रस में संलीन रहता है । ९ योगियों के अनुभव ने इस समता को विभिन्न स्वरूप में परिलक्षित किया है। जैसे- जब साधक प्रतिद्वन्द्वात्मक अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों या अवस्थाओं में समभाव की मस्ती में मस्त बनकर, रागद्वेष रहित होकर उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है, तब जो साधक को सहयोग देती है वह समता है ।१°जब वह समता आत्मभाव में स्थिर रहती है, स्वतः में संलीन हो जाती है, और समभाव में भावित होकर आत्मा के मूल स्वभाव को अधिष्ठित करती है तब उसी समता को आत्मस्थिरता कहते हैं। समत्व के सहयोग से जब साधक सर्व सावद्य से विरत, तीन गुप्ति से युक्त, और इन्द्रिय विवशता से मुक्त रहता है, तब समता को सावद्ययोग की निवृत्ति कहते हैं । यही समता साधक के साथ संयम में एकता लाती हुई सामायिक नाम को सार्थक करती है। ७. पद्मनन्दि पंचविंशतिका श्लो. ६४ ८. योगबिन्दु श्लो. ३६४ ९. योगसार श्लो. १७ १०: योगदीपक श्लो. १६
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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