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________________ २२० / योग- प्रयोग- अयोग ध्यान का स्थान ध्यान के लिए मानसिक चेतना की जागृति ही प्रमाण है किन्तु देश, काल और आसन का प्रभाव भी प्राथमिक भूमिका में आवश्यक है। ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान हो तो एकाग्रता बनी रहती है अतः स्थान साधक हो बाधक नहीं । ध्यान का काल मन को स्थिर करने के लिए काल मर्यादा की आवश्यकता ही नहीं है। फिर भी अभ्यस्त दशा में आवश्यकता होने पर काल का आयोजन आवश्यक है। ध्यान का आसन ध्यानाभ्यास के लिए आसन, मुद्रा या अवस्था है तो अभ्यास क्रम सधता है। अतः वीरासन, पर्यंकासन, कायोत्सर्ग आदि सुखासन, इत्यादि आसन ध्यान के लिए उपयुक्त हैं । परमात्मा महावीर स्वामी को गोदोहासन में कैवल्यज्ञान हुआ था । पद्मासन में भी प्रायः तीर्थंकरों को कैवल्यज्ञानियों को कैवल्य प्राप्त हुआ है । कायोत्सर्ग मुद्रा में भी अनेक ज्ञानियों को कैवल्य प्राप्त हुआ है। अतः साधक के लिए जो भी स्थान, काल और आसन उपयुक्त हो उसी में करना श्रेष्ठ है। ध्यान साधना के लिए साधक तत्व चाहिए, बाधक नहीं। ध्यान का स्वामित्व धर्मध्यान का स्वामित्व अप्रमत्तं संयत गुणस्थान अर्थात् सप्तम् गुणस्थानवर्ती संयत को होता है, और क्रमशः यह धर्मध्यान उपशान्त मोह एवं क्षीणमोह गुणस्थानों में सम्बद्ध होता है। धर्मध्यान के स्वामित्व के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में कुछ अन्तर है। श्वेताम्बर मान्यतानुसार धर्मध्यान का स्वामित्व सातवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में है अतः सात से लेकर बारह गुणस्थान तक के छहों गुणस्थान धर्मस्थानों में हैं अतः सात से लेकर बारह गुणस्थान तक के छहों गुणस्थान में धर्मध्यान संभव है। किन्तु दिगम्बर परम्परा चौथे से सातवें गुणस्थान तक के चार गुणस्थानों में धर्मध्यान की संभावना स्वीकार करती है। उसके अनुसार सम्यग्दृष्टि को श्रेणी के आरम्भ के पूर्व तक ही धर्मध्यान संभव है और श्रेणी का आरम्भ आठवें गुणस्थान से होने के कारण आठवें आदि में यह ध्यान किसी प्रकार संभव नहीं ।३६ ३५. तत्त्वार्थसूत्र - ९-३६-३८ ३६. तत्वानुशासन - ४६ तत्त्वार्थ राजवार्तिक ९-१३
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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