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________________ १९८ / योग-प्रयोग-अयोग मित्रता-प्रमोद, उपेक्षा आदि भावनाओं से आप्लावित करने का प्रयत्न योग-क्रिया में किया गया है। इसलिए जहाँ महाव्रतों की २५ भावनाओं का सम्बन्ध चारित्र से है, वहाँ १२ भावनाओं का सीधा सम्बन्ध संवेग से है। जिसे हम "ज्ञान" कह सकते हैं । बारह भावनाओं में मुख्यतः ज्ञान की विशुद्धि की ओर अधिक झुकाव है। प्रत्येक चिन्तन में ज्ञान को निर्मल एवं स्थिर करने के ही उपादान वहाँ अधिक प्राप्त हुए हैं, और इन चार भावनाओं का विशिष्ट सम्बन्ध दर्शन को पुष्ट करना मान लें तो कुल भावनाओं की फलश्रुति ठीक निष्पन्न हो जाती है - "दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के विशुद्ध संस्कारों को स्थिर करना भावना का फल है।" क्योंकि मैत्री आदि भावनाएँ एक प्रकार से दर्शन विशुद्धि की भावनाएँ हैं, इसलिए हम यहाँ उनकी संज्ञा भावनाओं का दृढ़ स्वरूप सम देकर आगे इनका वर्णन करेंगे। संज्ञा कुछ भी हो सकती है, विषय-वस्तु में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए । सम भावना के दो भेद हैं - योगभावना और जिनकल्पभावना मैत्र्यादि योगभावना है, और तपादि जिनकल्पभावना है। समस्त सत्त्व - जीवों के प्रति मैत्री हो, गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव हो, उनके गुणों के प्रति अनुराग एवं सन्मान हो, दुखी जीवों के प्रति करुणा भाव हो, विरोधियों के प्रति उपेक्षा या मध्यस्थ भाव हो तथा प्रतिकूल प्रसंगों में भी राग-द्वेष के विकल्प से दूर विरक्त भाव हो ऐसा चिन्तन मैत्रादि योग भावना का है। यह चिन्तन वास्तव में ही एक योगी का चिन्तन है। वैरागी से अगली भूमिका योगी की है, अतः हम यह भी मान सकते हैं कि १२ वैराग्य भावनाओं से मन को संस्कारित कर लेने के बाद योग भावनाओं की अगली सीढ़ी पर आरूढ़ होना सुयोग्य होगा । यह मैत्र्यादि के बाद अगला आरोहण है तपादि भावनाओं का।। इन भावनाओं का प्रयोग न केवल आध्यात्मिक जीवन में ही होता है, बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी बहुत उपयोगी है। आज के जन-जीवन में द्वेष-ईर्ष्या, संघर्ष और कलह का कारण इन भावनाओं का अभाव ही है। यदि हम मित्रता, गुणग्राहकता, करुणा और तटस्थता सीख लें तो मेरा विश्वास है - संसार की अधिकांश समस्याएँ स्वतः ही सुलझ जायेंगी। __आचार्य हेमचन्द्र ने इन चार भावनाओं का वर्णन ध्यान स्वरूप के साथ ही किया है, और इन्हें टूटे हुए ध्यान को पुनः ध्यानान्तर के साथ जोड़ने वाली अथवा ध्यान को पुष्ट करने वाली रसायन कहा है१६ १६. योगशास्त्र - ४/११
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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