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________________ योग-प्रयोग-अयोग/ १९७ भावनाएँ और निर्वेद से प्राप्त होता है चारित्र। जिसके चिन्तन का विषय है पाँच महाव्रत की २५ भावनाएँ। भावना का जन्म समभाव से होता है, भावना का विकास संवेग से बनता है और भावना का स्थायित्व निर्वेद से प्राप्त होता है। भावनायोग में ज्ञान और दर्शन दोनों ही पक्षों पर चिन्तन किया गया है, पहले पदार्थों के स्वरूप का दर्शन किया जाता है उसके पश्चात् यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। तदनन्तर आत्मा अनात्मा आदि सम्बन्धों पर विचार करने पर मन में एक निर्वेद भाव की झलक उभर आती है जो साधक को अनासक्त बना देती है। जो निर्वेद ज्ञानपूर्वक होता है वह हमारी एक अन्तर्मुखी चेतना है। यह जागृत चेतना ही आगे चलकर ध्यान एवं समता का रूप धारण करती है। अतः भावना की अंतिम साधना ध्यान तथा समता कही जाती है। जैन योग में भावना योग का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है उसमें उक्त तीनों ही दृष्टियाँ रही हैं । पहले वस्तु के प्रति समभाव पश्चात् स्वरूप-बोध, फिर स्वरूपोपलब्धि । स्वरूपोपलब्धि ही निर्वेद है। इसलिए कह सकते हैं - भावना स्वरूपदर्शन, स्वरूपबोध और स्वरूपोलब्धि तक की एक यौगिक साधना है। अतः अध्यात्म योग की आराधना करने के पश्चात् योगी अपनी साधना में क्रमशः प्रगतिशील रहता है। वह जप, तप, नियम के साथ-साथ आगे बढ़ता भावनायोग में प्रवेश करता है। १. सम भावना ___ भावनाओं के सतत् चिन्तन - मनन एवं अनुशीलन से योग साधना में क्रमिक विकास होता जाता है तथा हृदय में एक प्रकार की निवृत्ति - निर्वेद तथा परम शांति का अनुभव भी होता है। मन के विकार क्रोध, मान, माया, लोभ, ममत्व, मोह, शरीर एवं धन के प्रति आसक्ति स्वतः क्षीण होने लगती है और संस्कारों में वैराग्य तथा जागृति विशुद्ध होती है, इस कारण इन भावनाओं का सतत चिन्तन जीवन में आवश्यक है। योग साधना में मैत्री-प्रमोद आदि भावनाओं की विशिष्ट साधना रूप प्रक्रिया चलती है। ऐसा लगता है कि इन चार सम भावनाओं को ही योग की आठ दृष्टियों के रूप में आचार्य हरिभद्र ने नई परिभाषाओं के साथ प्रस्तुत किया है। क्योंकि इन दृष्टियों में भी योगोन्मुखी सत् प्रकार का चिन्तन और विचार प्रवाह बनता है। चित्त को १५. योग दृष्टि समुच्चय - १३
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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