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________________ योग-प्रयोग-अयोग/१८१ अभी तक साधक को सांपरायिक कर्म का क्षय होता था। किन्तु इस दृष्टि में स्थित साधक को भवोपग्राही कर्म का क्षय होता है । यहाँ साधक की धर्मसंन्यास अवस्था पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है। समस्त दोष क्षीण हो जाते हैं। अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। यहाँ योगी निर्विकल्प आत्म-समाधि में, सहजात्म स्वरूप अखण्ड स्थिति में, शुद्ध, शुक्ल आत्मध्यान में और जीवन मुक्त स्थिति में रहता है। आसंग दोष से मुक्त रहता है। अन्त में यथाख्यात परम वीतराग चारित्र प्रकट होता है। कर्मों का नाश करता हुआ गुणस्थानों पर चढ़ता हुआ सयोग केवली गुणस्थान पर पहुँचता है, और अन्त में अयोगी होकर निर्वाण प्राप्त करता है। परादृष्टि : कोष्ठक नं. २० दर्शन चन्द्रमासम योगांग समाधि दोषत्याग आसंगत्याग गुणप्राप्ति प्रवृत्ति गुणस्थान ८-९-१०-१२-१३ -१४ धर्म संन्यास योग क्षपक श्रेणी केवलज्ञान निर्वाण सम्पूर्ण केवल दर्शनज्ञान आत्मस्वभावे प्रवृत्तिकरण कोष्ठक नं. २१ योगदृष्टि योगअंग दोषत्याग गुण प्राप्ति बोध की उपमा विशेषता मित्रा . यम खेद उदवेग तण अग्निकण मिथ्यात्व तारा नियम उद्वेग जिज्ञासा गोमय अग्निकण मिथ्यात्व बला आसन क्षेप सुश्रुषा काष्ठ अग्निकण मिथ्यात्व दीप्रा प्राणायाम उत्थान श्रवण दीप प्रभा मिथ्यात्व प्रत्याहार भ्रांति बोध रत्नप्रभा सम्यक्त्व कांता धारणा . अन्य मुद मीमांसा ताराप्रभा सम्यक्त्व प्रभा ध्यान राग द्वेष प्रतिपति सूर्यप्रभा सम्यक्त्व परा समाधि - आसंग प्रवृत्ति चन्द्रप्रभा सम्यकत्व स्थिरा
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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