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________________ योग-प्रयोग-अयोग/१६९ वंचकत्रय का स्वरूप वंचक अर्थात धूर्त गुरु का संयोग योगवंचक है, अनेक साधनों की उपलब्धि होने पर भी तथारूप योग्यता का अभाव होने से क्रिया करने पर भी असाध्य रूप होती है अतः यह क्रिया वंचक है, इष्ट कार्य साधक न होने से बाधक होता है अतः फल भी अनिष्ट प्राप्त होता है इसे फला-वंचक कहते हैं। योगबीज से भावमल की अल्पता, भावमल की अल्पता से सतगुरु आदि को प्रणाम, वंदन, नमस्कार, वंदन नमस्कार से अवंचक त्रय की प्राप्ति और अवंचक त्रय से शुभ निमित्त का संयोग । इस प्रकार यहाँ कार्यकारण परम्परा है। . ___ यह सम्पूर्ण प्रक्रिया प्राप्ति के समय जीवों द्वारा यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण - ऐसे तीनं करण किये जाते हैं । अतः इस प्रथम दृष्टि को प्राप्त साधक चरमपुद्गलपरावर्त में अपूर्व ऐसा चरमयथाप्रवृत्तिकरण तक पहुँचता है। यहाँ भावमल की अल्पता और ग्रन्थिभेद की समीपता होती है । गुणों में प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्वगुणस्थान का यह अधिकारी होता है। इस प्रकार इस मित्रादृष्टि में स्थित साधक उपर्युक्त साधना को सिद्ध करने में सफल होता है। __ आकृति नं. ८ चरमावर्त तथा भव्यत्व परिपाक सत् प्रणामादि चरम यथा प्रवृत्तिकरण भावमल की अल्पता अवंचक भय योगबीज २ साधक • अपूर्वकरण ३भावमल. अल्पता ग्रंथिदेश प्राप्ति २. योगदृष्टि समुच्चय श्लो. ३६ से ४०
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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