________________
१६६ / योग-प्रयोग-अयोग
- योगदृष्टि का स्वरूप औघदृष्टि से विपरीत होता है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार आठ दृष्टियों का समावेश योगदृष्टि में होता है। इन आठ दृष्टियों में से प्रथम चार दृष्टियाँ मिथ्यादृष्टि जीवों को भी हो सकती हैं । इसमें पतन की भी संभावना हो सकती है अतः यह प्रतिपाति है। अंतिम चार दृष्टियाँ नियमतः चारिसभवनी न्याय के अनुसार सम्यग्दृष्टि को ही होती हैं और वे अप्रतिपाती हैं - इससे पतन कभी नहीं होता। प्रथम चार दृष्टियाँ अस्थिर हैं जबकि अंतिम चार स्थिर हैं। हालांकि प्रथम चार दृष्टिवालों का वर्तमान, गति से प्रगति की ओर होता है। सत्संग, सत्शास्त्र आदि निमित्तों द्वारा जीव का विकास होता है, किन्तु प्रथम चार दृष्टि तक इतना ख्याल होवे कि वे कभी पतित भी हो जाता है। बहिरात्म, दशा, क्षिप्त विक्षिप्त और यातायात से मनोगत भाव उलझन में कभी विकास क्रम रुक जाता है अतः प्रथम चार दृष्टि को अपूर्ण भी कह सकते हैं।
कोष्ठक नं. १० प्रतिपाति और अप्रतिपाति
| थ्या ] त्व | स
| म्य | क | त्व दृष्टि| १ | २ | ३ | ४ | ५ | ६
| ७ | ८ मुक्ति प्रतिपति अप्रतिपति
अप्रतिपति ही निरपाय
निर अपायही भवभ्रमण मुक्ति प्रति
अखंड प्रयाण यहाँ सहस्र दृष्टियों में से प्रमुख आठ दृष्टियों के अनुशीलन की चर्चा की गई है।
सापाय
८. योगबिन्दु - ११९ ९. योगदृष्टि समुच्चय - गा. १९