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योग-प्रयोग-अयोग/ १६५ दृष्टियोग
दृष्टि का अर्थ बताते हुए योगदृष्टि समुच्चय में कहा गया है कि सत् समीचीन श्रद्धा युक्त बोध का नाम यथार्थदृष्टि है। इसके द्वारा विचार युक्त श्रद्धा रखने, निर्णय करने एवं सत्य पदार्थ का ज्ञान करने की शक्ति उत्पन्न होती है। ज्यों-ज्यों दृष्टि की उच्चता प्राप्त होती है त्यों-त्यों बोध एवं चारित्र का विकास होता जाता है । आत्मविकास के क्रमानुसार कर्मों का क्षयोपशम होता रहता है और उसके अनुसार साधक का दर्शन सुस्पष्ट होता रहता है। इस आत्मविकास क्रमोन्नति के असंख्य भेद हैं, उन असंख्य भेद में से हरिभद्रसूरि ने प्रमुख ८ दृष्टियों के माध्यम से योगमार्ग को स्पष्ट किया है।
जिस प्रकार पातंजल योगसूत्र में आत्मविकास अर्थात् चारित्र विकास की चरम अवस्था रूपमोक्ष की सिद्धि के लिए योग रूपसाधन के यम नियमादि आठ अंग बतलाए गये हैं उसी प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने जैनाभिमत निम्न आठ योगदृष्टि का उल्लेख किया है।
(१) मित्रा, (२) तारा, (३) बला, (४) दीप्रा, (५) स्थिरा, (६) कान्ता, (७) प्रभा और (८) परा।
आकृति नं. ६ दृष्टि की आकृति
ओघदृष्टि एवं योगदृष्टि ___सामान्यतया दृष्टि दो प्रकार की होती है। ओघदृष्टि और योगदृष्टि । ओघ अर्थात् विवेकशून्य दृष्टि । जनसमूह का सामान्य ज्ञाम जिसमें विचार अथवा विवेक का अभाव होता हो, वह ओघदृष्टि कहलाता है। इसमें गतानुगतिकता का सद्भाव एवं अभाव होता है । अतः विवेकशून्य परम्परागत (रूढ़िगत) मान्यताओं का स्वीकार करना ओघदृष्टि है।
७. योगदृष्टि समुच्चय श्लो. १७