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________________ | xvii ] __ साधु जीवन आचार संहिता का प्राण है। अतः आज्ञायोग में प्रायश्चित और पश्चात्ताप आदि रूप में पाप वृत्तियों के हास हेतु आदेश निर्देश आदि विशुद्ध अनुष्ठानों का निर्देश प्राप्त होता है। भाव आवश्यक में स्थित योगी व्यवहार से परे होकर अध्यात्म में लीन रहता है। अध्यात्म योगी धारणा ध्यान और कायोत्सर्ग जो आवश्यक योग है, उसी में संलग्न रहता है। फलतः साधक समभाव में स्थिर, वीतराग भाव में लीन होता हुआ गुरुवर्यों के वंदन आदि प्रवृत्ति में प्रवर्तमान होता है। दोषों की आलोचना करके ममत्व से मुक्त और आहारादि की आसक्ति से अनासक्त हो जाता है। __ इस प्रबन्ध के चतुर्थ विभाग में योग का विकास क्रम और पंचम विभाग में योग के भेद-प्रभेद की समस्या और समाधान दिया गया है। विक्रम की चौथी, पांचवीं शताब्दी में विरचित पूज्यपाद स्वामी ने आत्मा का विलासक्रम विशेष रूप से दर्शाया है। छठी शताब्दी के जिनभद्रगणी के ध्यान शतक में ध्यान एकाग्रता से होने वाले लाभ और हानि का स्वतन्त्र चिन्तन परिलक्षित होता है। विक्रम की आठवीं शताब्दी से जैन योग में हृदयस्पर्शी, मार्मिक, तात्त्विक तथा क्रान्तिकारी साहित्य का जन्म हुआ । उन साहित्यों के सर्जन में सर्वोपरि स्थान है हरिभद्रसूरि का । उन्होंने आगमिक परम्परा की वर्णन शैली में काल के प्रभावानुसार एवं लोकरुचि के अनुरूप अपने साहित्य में एक नया मोड़ लिया। उन्होंने नूतन परिभाषाओं का परिमार्जित रूप प्रस्तुत करके जैन योग साहित्य में अभिनव युग का निर्माण किया । उनकी शतमुखी प्रतिभा का स्रोत शोध प्रबन्ध के चतुर्थ और पंचम विभाग में प्रवहमान हुआ है। __आचार्यश्री के योगविषयक ग्रंथों में योग बिन्दु, योगदृष्टि-समुच्चय, योगशतक, योगविंशिका और षोडशक आदि का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । आचार्यश्री ने परम्परागत जो आध्यात्मिक विकास क्रम है उसी का योग रूप में वर्णन किया है, पर उसमें उन्होंने जो शैली रखी है वह अभी तक उपलब्ध योगविषयक साहित्य में किसी भी ग्रन्थ में परिलक्षित नहीं होती है। उनके ग्रंथों में अनेक स्थान पर अनेक दर्शनों के योगियों का नाम निर्देश पाया जाता है तथा अनेक २ अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख पाया जाता है। १. गोपेन्द्र-योगबिन्दु श्लोक २०० कालातीत-योगबिन्दु श्लोक ३०० २. पंतजली, भदन्तभास्कर, बन्धु भगवदन्तवादी-योगदृष्टिसमुच्चय-श्लोक १ टीका
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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