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________________ १४४ / योग-प्रयोग-अयोग सरागभाव होता है, वहाँ ऐसा समझना कि वीतराग भाव के द्वारा संवर होता है और सरागभाव के द्वारा बंध होता है। कई आचार्य अहिंसा आदि शुभासव को संवर मानते हैं । किन्तु यह भूल है। शुभास्रव से तो पुण्यबंध होता है। जिस भाव द्वारा बंध हो उसी भाव के द्वारा संवर नहीं होता। किन्तु आत्मा के जितने अंश में सम्यग्दर्शन है उतने अंश में संवर है और बंध नहीं, किन्तु जितने अंश में राग है उतने अंश में बंध है, जितने अंश में सम्यग्ज्ञान है उतने अंश में संवर है, बंध नहीं तथा जितने अंश में सम्यकचारित्र है उतने अंश में संवर है, बंध नहीं, किन्तु जितने अंश में राग है उतने अंश में बंध है ।१३) इस विषय में प्रश्न उपस्थित होता है कि सम्यग्दर्शन संवर है और बन्ध का कारण नहीं तो फिर सम्यक्त्व को भी देवायुकर्म के आस्रव का कारण क्यों कहा? तथा दर्शन विशुद्धि से तीर्थंकर कर्म का आस्रव होता है ऐसा क्यों कहा? __ इसका अभिप्राय यही है कि तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध चौथे गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त होता है और तीन प्रकार के सम्यक्त्व की भूमिका में यह बन्ध होता है। वास्तव में (भूतार्थनय से-निश्चयनय से) सम्यग्दर्शन स्वयं कभी भी बन्ध का कारण नहीं है, किन्तु इस भूमिका में रहे हुए राग से ही बन्ध होता है। तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का कारण भी सम्यग्दर्शन स्वयं नहीं, परन्तु सम्यग्दर्शन की भूमिका में रहा हुआ राग बन्ध का कारण है। जहाँ सम्यग्दर्शन को आस्रव या बंध का कारण कहा हो वहाँ मात्र उपचार (व्यवहार) से कथन है ऐसा समझना, इसे अभूतार्थनय का कथन भी कहते हैं । सम्यग्ज्ञान के द्वारा नयविभाग के स्वरूप को यथार्थ जानने वाला ही इस कथन के आशय को अविरुद्ध रूप से समझता है। निश्चय सम्यग्दृष्टि जीव के चारित्र की अपेक्षा से दो प्रकार हैं- सरागी और वीतरागी। उनमें से सराग-सम्यग्दृष्टि जीव राग सहित हैं । अतः राग के कारण उनके कर्म प्रकृतियों का आस्रव होता है और ऐसा भी कहा जाता है कि इन जीवों को सरागसम्यक्त्व है, परन्तु यहाँ ऐसा समझना कि जो राग है वह सम्यकत्व का दोष नहीं किन्तु चारित्र का दोष है। जिन सम्यग्दृष्टि जीवों को निर्दोष चारित्र हैं उनको वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है, वास्तव में ये दो जीवों को सम्यग्दर्शन में भेद नहीं किन्तु चारित्र के.भेद की अपेक्षा से ये दो भेद हैं । जो सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र के दोष सहित हैं उनको सराग सम्यक्त्व है ऐसा कहा जाता है और जिस जीव को निर्दोष चारित्र है उनके वीतराग सम्यक्त्व है ऐसा कहा जाता है। इस तरह चारित्र की सदोषता या : १३. देखिए पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा २१२ से २१४
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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