SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग-प्रयोग-अयोग / १४३ श्री अमृतचन्द्राचार्य ने संवर की परिभाषा को अनेकान्त की अपेक्षा से प्रस्तुत किया है "शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः शुद्धोपयोगः" शुभाशुभ परिणाम के निरोध से जो संवर होता है, वह शुद्धोपयोग है।'' इस प्रकार संवर से आस्रव का निरोध होता है, तथा आस्रव बंध का कारण होने से संवर होने पर बन्ध का भी निरोध होता है। कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में कहा है कि शुद्धात्मा को जानने और अनुभव करने वाला जीव शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त होता है, और अशुद्ध आत्मा को जानने एवं अनुभव करने वाला जीव अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त होता है। इस प्रकार आत्मा का जो भाव ज्ञान दर्शन रूप उपयोग को प्राप्त कर योगों की क्रिया से विरक्त होता है, और नवीन कर्मों के आस्रव को रोकता है, वह संवर तत्व है। शुभाशुभपरिणामनिरोध रूप संवर और शुद्धोपयोग रूप योगों से संयुक्त भेदविज्ञानीजीव अनेक प्रकार के अंतरंग बहिरंग सद् असद् अनुष्ठान तथा तप द्वारा उपाय करता है इससे निश्चय ही अनेक कर्मों की निर्जरा होती है। राग-द्वेष मोह रूप जीव के विभाव का न होना और दर्शन ज्ञान रूप चेतन भाव का स्थिर होना संवर है, यह जीव का निजी स्वभाव है। इससे पुद्गल कर्मजनित भ्रमण दूर होता है और कर्म की निर्जरा एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है।११ जितना प्रमाण सम्यग्दर्शन का होता है, उतना ही प्रमाण संवर का होता है, और जितना प्रमाण राग-द्वेष का होता है, उतना प्रमाण बन्ध का होता है। इस प्रकार ज्ञान और चारित्र के प्रमाणानुसार संवर का प्रमाण होता है ।१२ संवर धर्म है, जीव जब सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तब संवर प्रारम्भ होता है, सम्यग्दर्शन के बिना कभी भी यथार्थ संवर नहीं होता। सम्यग्दर्शन प्रकट करने के लिये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नव तत्वों का स्वरूप यथार्थरूप से जानना चाहिए । सम्यग्दर्शन प्रगट होने के बाद, जीव के आंशिक वीतरागभाव और आंशिक ७. श्लोकवात्तिक संस्कृत टीका २ पृष्ठ-४८६ ८. समयसार गा. १८६ ९. पंचास्तिकाय-गा. १४४ १०. अष्ट पाहुड-भावप्राभृत-गा. ११४ ११. अष्ट पाहुङ-भावप्राभृत-गा. ११४. १२. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गा. २१२ से २१४
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy