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________________ योग- प्रयोग-अयोग/१३७ प्रमाद है। अविवेक प्रमाद को जन्म देता है। अतीत का होना और अनागत की चिन्ता ही प्रमाद है। मद् विषय, निन्दा, विकथा इत्यादि इन्द्रिय जन्य उपभोग प्रमाद है। ४. कषाय कर्मयोग में बाधक तत्व कषाय भी है-क्रोध, मान, माया और लोभ, चार कषाय कहे जाते हैं । इष्ट पदार्थ का योग और उसके सुख की अनुभूति तथा प्रतिकूल पदार्थ का योग और उससे दुख की अनुभूति इन दोनों से कषाय की पुष्टि होती है। बुरे विचारों से, बुरी भावनाओं से, बुरे आचरणों से कषाय के अनेक द्वार खुल जाते हैं। एक बुराई हजारों बुराइयों को पैदा करती है, एक संक्लेश अनेक संक्लेशों को जन्म देता है । एक दुःख अनेक दुःखों को पैदा करता है। कोहो पीइं पणासेइ क्रोध प्रीति का नाश करता है। अतः साधक के भीतर रहने वाला आनन्द का प्रवाह सूख जाता है। क्रोध होने पर मैत्रीभाव समाप्त होता है, शरीर की शक्ति क्षीण होती है, धैर्य समाप्त हो जाता है, निराशा छा जाती है, प्रतिभा नष्ट होती है, चिन्तन शक्ति का हास होता है तथा शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शक्ति छिन्न-भिन्न हो जाती है। नाभि के पास एड्रिनल ग्रन्थि है, जब वह उत्तेजित होती है तो वृत्तियाँ उजागर होती हैं और क्रोध आदि कषाय प्रज्ज्वलित करती है। ५.. योग कर्म योग में बाधक तत्व योग भी है-मन, वचन और काया की चंचलता को योग कहा है। हमारे मन में अनेक विकल्पों का जाल पैदा होता है। इच्छाएँ पूर्ण होवें या न होवें हमारी उससे तप्ति होवे या न होवे पर इच्छाएँ समाप्त नहीं होती । सम्पूर्ण इच्छाओं का उद्गम स्थान मन ही है। जिस प्रवृत्ति के मूल में राग-द्वेष और मोह की वृत्ति है, वस्तुतः वह प्रवृत्ति भी कर्म रूप क्रिया है। राग और द्वेष के निमित्त से उत्पन्न होने वाली क्रिया राग प्रत्ययिकी और द्वेष प्रत्ययिकी क्रिया है। दशवें गुणस्थान में जीव कषाय की अपेक्षा क्रियाशील है। जहाँ लेश्या है, वहाँ किसी न किसी प्रकार की क्रिया अवश्य है, अतः सलेशी जीव सक्रिय है, योग की अपेक्षा से भी जीव संयोगी है, अतः वह भी सक्रिय है। "क्रिया और ध्यान" तेरहवें गुणस्थान की शेष अवस्था में सूक्ष्म काय योग से सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान होता है। यहाँ तक सब ध्यानों में जीव सक्रिय होता है, अर्थात् शुक्लध्यान के तृतीय पाद तक सक्रिय रहता है। चतुर्थ पाद में सर्व क्रियाएं विच्छिन्न हो जाती हैं।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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