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________________ २. साधना की चरमावस्था प्रीति, अनुराग, भाव - भक्ति । भक्ति-योग भक्ति शब्दार्थ भक्ति शब्द 'भज' धातु को क्तिन् प्रत्यय जोड़कर निष्पन्न हुआ है । ' इसकी व्युत्पत्ति भजनम् भक्तिः भज्यते अनया इति भक्तिः भजन्ति अनया इति भक्तिः इत्यादि रूप में की जा सकती है। भक्ति के पर्यायवाची शब्द जैसे पाइअसद्दर-महण्णव में निशीथ चूर्णिमें चेइअवंदण महाभाष्य में भक्ति को सेवा कहा गया है। भक्ति के पर्यायवाचियों में श्रद्धा का स्थान भी सेवा की तरह विशेष है जैसे श्री हेमचन्द्राचार्य कृत प्राकृत व्याकरण में, आचार्य समन्तभद्र कृत समीचीन धर्मशास्त्र में और तत्त्वार्थ सूत्र में भक्ति को श्रद्धा कहा है। आचार्य पूज्यपाद ने भक्ति के स्थान पर अनुराग को स्थान दिया है। उन्होंने अरिहंत, आचार्य बहुश्रुत और प्रवचन में भावविशुद्धि युक्त अनुराग को भक्ति कहा है। आचार्य सोमदेव के अनुसार जिन, जिनागम और तप, तथा श्रुत में तत्पर आचार्य के प्रति सद्भाव इत्यादि से विशुद्धि सम्पन्न अनुराग को भक्ति कहा है।" पूज्यपाद श्री रूपगोस्वामी के अनुसार स्वाभाविक अनुराग को ही भक्ति कहा है। अभिधान राजेन्द्रकोश भा. ५, पृ. १३६५ २. पाइअसद्दमहण्णवो-पृ. ७९६ ३. निशीथचूर्णि-१३० ४. चेइअ-वंदण महाभासं पाद टिप्पण-१ आचार्य हेमचन्द्राचार्यकृत प्राकृत व्याकरण ६. सर्वार्थसिद्धि-६१२४ का भाष्य पृ. ३३९ ७. Yasastilak and Indian Culture p. 262 ८. हरिभक्ति रसामृतसिन्धु पृ. ८७-८८
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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