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________________ १०४ / योग-प्रयोग-अयोग अर्थ में प्रसिद्ध हैं । जैनागमों में और पातञ्जल योगदर्शन में इस विषय में कुछ विभिन्नता भी प्रतीत होती है। महर्षि पतञ्जलि ने इनका विधि रूप में प्रतिपादन किया है और आगम में इसका निषेध रूप में विधान किया है । जैसे-हिंसा से निवृत्ति, मृषावाद का त्याग इत्यादि। इस प्रकार हिंसा, चोरी, मैथुन और परिग्रह का-मन, वचन, काया से परित्याग करना, उससे निवृत्त होना व्रत है। निवृत्ति और प्रवृत्ति व्रत के ये दो पहलू हैं । सत्कार्य में प्रवृत्त होने के लिए सर्वप्रथम साध्य है, असत्कार्यों से निवृत्त होना । इसी प्रकार असत्कार्यों से निवृत्त होने के लिए आवश्यक है उसके विरोधी सत्कार्यों में मन, वचन, काय आदि की प्रवृत्ति करना । ये दोनों प्रवृत्तियाँ स्वतः प्राप्त हैं। त्याग अर्थात् दोषों से निवृत्त होना। प्रत्येक आत्मा अपनी योग्यतानुसार ही त्याग अपना सकते हैं। एतदर्थ यहाँ हिंसादि दोषों की अल्प और विशेष सभी निवृत्तियों को व्रत मानकर उनके संक्षेप में दो भेद किये गये हैं जैसे- अल्प अंश में विरति वह अणुव्रत और सर्वांश विरति वह महाव्रत है । २ . स्थानांग सूत्र में हिंसा की निवृत्ति के विषय में "सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं" शब्द का प्रयोग भी मिलता है । ३ २. योगसंग्रह (नियम) ऊपर महाव्रतों में बताया है कि पांचों व्रतों का मन, वचन और काया से परित्याग करना व्रत है। इन्हीं व्रतों का परित्याग जब तक नहीं होता है तब तक योग का संग्रह माना जाता है। संग्रह सका निग्रह करना है ; इसलिए प्राचीन युग में द्वितीय योग अंग का नाम योग संग्रह रखा गया है, जो आज के युग में नियम के रूप में प्रचलित हैं । नियम अर्थात् इच्छाओं पर विजय । णियमेण य जंकज्जंतण्णियमं- अर्थात् जो करने योग्य हो, ऐसा नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिये होता है । नियम द्वारा रागादि भावों का निवारण और भोगोपभोग तथा कालादि की मर्यादा होती है जैसे-भोजन, सवारी, शयन, स्नान, कुंकुमादिलेपन, पुष्पमाला, ताम्बूल,वस्त्र, अलंकार, कामभोग, संगीत २. तत्त्वार्थसूत्र-७/२ ३. स्थानांगसूत्र-स्था. ५, उ. १, पृ. ३ ४. नियमसार-३/१२०
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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