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________________ ९४ / योग- प्रयोग- अयोग शुभयोग को ब्रह्मविद्या कहते हैं अतः इसी हेतु साधना के क्षेत्र में जो स्थान शुभ योग का है, वही स्थान ब्रह्मचर्य का भी है। शुभ योग ब्रह्मचर्य का पूरक है और ब्रह्मचर्य शुभयोग का पूरक है। जहाँ शुभ योग होता है वहाँ ब्रह्मचर्य अवश्य रहता है और जहाँ ब्रह्मचर्य की साधना होती है वहाँ शुभ योग अवश्य होता है। ब्रह्मचर्य शब्द में दो शब्द है- ब्रह्म और चर्य । इसका अर्थ है - ब्रह्म में चर्या । ब्रह्म का अर्थ है आत्मा का शुद्ध-भाव और चर्या का अभिप्राय है विचरण करना, रमण करना । ब्रह्मचर्य का महत्त्व योग-साधना में विशेष रूप से ब्रह्मचर्य की साधना को महत्त्व दिया गया है। भगवान महावीर ने अपने आचार-योग की आधारशिला रूप पंच महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को भी साधु के लिए महाव्रत और गृहस्थ के लिए अणुव्रत के रूप में स्वीकार किया है। पतंजलि ने योग दर्शन में ५ यमों में ब्रह्मचर्य को भी एक यम माना है। बुद्ध ने भी अपने पंचशीलों में ब्रहमचर्य को एक शील माना है। इस पर से यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मचर्य की साधना बहुव्यापी एवं विस्तृत साधना है। जो साधक योग की साधना करना चाहते हैं और उसके फल की उपलब्धि करना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले ब्रह्मचर्य की साधना की ओर विशेष लक्ष्य देना पड़ता है। योग साधना में वासना, कामना, तृष्णा और आसक्ति बाधक तत्व हैं । योग और ब्रह्मचर्य से लाभ इन्द्रिय और मन का निग्रह, दुःख मुक्ति का परम उपाय - ब्रह्मयोग वीर्य ऊर्ध्वकरण की साधना आत्मा का विशुद्ध स्वरूप-आत्म-रमणता जड़-चेतन का भेद ज्ञान ।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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